Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International
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एवं सादा जीवन कह सकते हैं, उसे हम व्यवसाय में सच्चाई या ईमानदारी कह सकते हैं । शोषणमुक्त जीवन के लिए श्रम-निष्ठ जीवन आवश्यक है, समतामूलक समाज-व्यवस्था अपरिहार्य है । यही कारण है कि श्रमण संस्कृति साम्य, शम और श्रम के आसपास ही विकसित हुई है। आज तो यह पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक है।
__ अहिंसा और अपरिग्रह की भावना के साथ-साथ तप और त्याग की भावना अनिवार्य रूप से सम्बन्धित है। जब तक राग-द्वेष आदि मलिन वृत्तियों पर विजय प्राप्त नहीं की जाय तब तक सब व्यर्थ है। जिस अहिंसा, तप या त्याग से हम राग-द्वेष पर विजय प्राप्त नहीं कर सके, वह अहिंसा, तप या त्याग सब बेकार एवं आध्यात्मिक दृष्टि से अनुपयोगी है। यही कारण था कि भगवान महावीर ने वीतरागता का आग्रह किया। राग-द्वेष की विजय ही सबसे बड़ी जीत एवं सबसे बड़ी वीरता है। इसीलिए तो हम अपने आराध्य को महावीर एवं अपने धर्म को जिन (जैन) धर्म कहते हैं । आज के युग में वीतरागता कोई धार्मिक रूढ़िवाद नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक अनिवार्यता है । अाज हमारा अन्तर क्षत-विक्षत हो रहा है, हमारा परिवार टूट रहा है। पड़ोस में तनाव है। समाज में अविश्वास एवं राष्ट्रों के बीच घृणा एवं हिंसा की ज्वालामुखी चल रही है। हमारा मानस अत्यन्त उद्विग्न और प्रशान्त है। इसीलिए तो हमें अाज अक्षोभवृत्ति स्वस्थ एवं शान्त रहने के लिए भी आवश्यक है । स्थितप्रज्ञता या वीतरागता आज के युग की सबसे बड़ी मांग है। तनाव में जीकर या तो हम मानसिक असन्तुलन को प्राप्त करें या फिर सुख से जीयें एवं शान्ति से मरें। यह साम्यदृष्टि ही जैन दर्शन का मूल है।
अध्यक्ष, गांधी विचार विभाग भागलपुर विश्वविद्यालय भागलपुर (बिहार)
आत्माएं तीन प्रकार की होती है : बहिरात्माएं, अन्तरात्माएँ और परम-ग्रात्माएँ, और परम-प्रात्माएँ दो प्रकार की होती है : अरहंत प्रात्माएं और सिद्ध-प्रात्माएँ।
समणसुत, 178
शरीररूपी इन्द्रियाँ ही बहिरात्मा हैं; शरीर से भिन्न प्रात्मा का विचार ही अन्तरात्मा है, तथा कर्म-कलंक से मुक्त जीव परम-प्रात्मा है । परम-प्रास्मा ही देव कहा गया है।
समणसुरा, 179
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