Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International
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उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन जनतान्त्रिक सामाजिक चेतना से प्रारम्भ से ही अपने तत्कालीन संदर्भों में सम्पृक्त रहा है। उसकी दृष्टि जनतन्त्रात्मक परिवेश में राजनैतिक क्षितिज तक ही सीमित नहीं रही है उसने स्वतन्त्रता और समानता जैसे जनतांत्रिक मूल्यों को लोकभूमि में प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से अहिंसा, धनेकान्त घोर अपरिग्रह जैसे मूल्यवान सूत्र दिये हैं और वैयक्तिक तथा सामाजिक घरातल पर धर्म सिद्धान्तों की मनोविज्ञान और समाजविज्ञान सम्मत व्यवस्था दी है। इससे निश्चय ही सामाजिक और अार्थिक क्षेत्र में सांस्कृतिक स्वराज्य स्थापित करने की दिशा मिलती है।
सह-प्रोफेसर, हिन्दी विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर (राजस्थान)
जैसे क्षुषा को नष्ट करने के लिए अन्न होता हैं तथा जिस तरह प्यास को नष्ट करने के लिए जल है, वैसे ही विषयों की भूख तथा ध्यास को नष्ट करने के लिए ध्यान है ।
भगवती श्राराधना,
विनयरहित मनुष्य की सारी शिक्षा निरर्थक है । विनय शिक्षा का फल है और विनय के फल सारे कल्याण हैं ।
भगवती आराधना, 128
धर्मात्माओं का जागरण (सक्रिय होना) और अधर्मात्माओं का सोना ( निष्क्रिय होना ) सर्वोत्तम होना है। ऐसा वहस देश के राजा की बहिन जयन्ती को जिन (महावीर ) ने कहा था।
समणसुत्तं, 162
1901
यह वस्तु मेरी है और यह वस्तु मेरी नहीं है। यह मेरा कर्तव्य है और यह मेरा कर्तव्य नहीं है इस प्रकार ही बारंबार बोलते हुए उस व्यक्ति को काल ले जाता है । प्रतः कैसे प्रमाद किया जाए ?
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