Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International
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"आचारांग में हिंसा का विवेचन
"आचारांग " जैन धर्म का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें 323 सूत्र हैं। "आचारांग ” का प्रतिपाद्य माध्यात्मिक जीवन का प्रकर्ष दिखाना तथा उसके लिए पथ प्रशस्त करना है। इसके लिए त्याग और ममत्व के परित्याग को अधिक महत्व दिया गया है। की साधना का वर्चस्व अधिक प्रभामय है। यहां केवल पहिंसा की श्राधार पर करना अभीष्ट है ।
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-डॉ० निज़ाम उद्दीन
अहिंसा समता भाव है जहां हिंसा होती है वहां प्रमाद और अज्ञान रहता है. 'पर' की भावना रहती है। अहिंसा में 'स्व' की भावना सन्निहित रहती हैं। हिंसा को 'भाव हिंसा' और 'द्रव्यहिंसा' इन दो रूपों में व्यक्त किया जाता है। भावहिंसा का सम्बन्ध मन से है हमारे मन में हिंसा का भाव मन की विकृति ( प्रमाद, प्रज्ञान, घृणा, क्रोध आदि) के कारण उत्पन्न होता है । 'द्रव्यहिंसा' में सामाजिकता आ जाती है । यदि हमारी दृष्टि "स्व" के साथ "पर" पर समान रहेगी, तो हिंसा नहीं होगी। "आचारांग" के प्रथम अध्ययन में कहा गया है- "जो अपने अन्दर को जान लेता है वह बाहर को भी जान लेता है और जो बाहर को जानता है वह अन्दर को भी जानता है ।" अतः "स्व" और "पर" को समान रखना चाहिए। "स्व" और "पर' दोनों में समत्व, एकत्व का रूप विद्यमान होना अहिंसा है । दूसरे को समझना भी अपने को समझना है, दूसरे को कष्ट न पहुंचाना अपने को ही कष्ट के जाल में न फंसाना है। जिसे अपने सुख-दुख का एहसास होता है, उसे ही दूसरों के सुख-दुख का एहसास हो सकता है । जिंदगी किसे प्यारी नहीं ? घन किसको प्रिय नहीं ? सम्मान आदर-प्राप्ति की स्पृहा किसे नहीं होती ? सब को ये प्रिय हैं । हमें भी हैं। फिर क्यों हम अपने को सुख-सम्पन्न बनाकर दूसरों को दुखमय देखना चाहते हैं, अपने को लाभान्वित कर दूसरों को घाटे में रखना चाहते हैं । " आचारांग" में कहा गया है - "सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है, सभी को सुख प्रिय है, दुख अप्रिय लगता है, बघ प्रप्रिय लगता है, जीवन सभी को प्रिय लगता है। सभी जीना चाहते हैं. जीना सबको अच्छा लगता है, अतएव किसी को मारना नहीं चाहिए ।" स्वभावतः प्रत्येक प्राणी को सुख प्रिय घोर दुःख अप्रिय लगता है, यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है, मानसिक वृत्ति है। फिर हमें क्या अधिकार है कि अपने सुखायें
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अतः अहिंसा, समत्व, सत्य विवेचना "आचारांग" के
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