Book Title: International Jain Conference 1985 3rd Conference
Author(s): Satish Jain, Kamalchand Sogani
Publisher: Ahimsa International
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यदि आध्यात्मिक परिष्कार न हो तो मानवीय दुःखों का हटाने के लिए जुटाई गई सुख-सुविधाएं समता के नाम पर घोर से घोर विषमताएं उत्पन्न कर देती हैं। शान्ति और सामाजिक न्याय की स्थापना के नाम पर संघर्षों और युद्धों की प्रतिहिंसात्मक भावनाओं में उत्तरोत्तर उभार आता रहता है और फिर उनको समाप्त करने के सारे भौतिक प्रयत्न एक मात्र विवाद या परिचर्चा के विषय बनकर व्यर्थ हो जाते हैं।
भौतिकतावादी दृष्टि की विसंगतियों और विफलताओं के सन्दर्भ में जैनदर्शन यही कहता है कि समस्या का समाधान प्राध्यात्मिक है उसे स्वीकार करो। बहिर्मुख-बहिरात्मा-मत रहो, अन्तर्मुख बनो, अन्तरात्मा बनते ही तुम देखोगे कि तुम तो स्वयं परमब्रह्म हो. परमात्मा हो। जीव का स्वभाव परमात्मा है । सब परमात्मा बन सकते हैं।
स्वतन्त्र और समान बनने के लिए प्रात्मा को कुछ करना नहीं है। स्वतन्त्रता और समानता बाहर से आने वाली वस्तुएं नहीं है। वे तो आत्मा के अपने गुण हैं। अपने धर्म हैं। उसे यह भ्रम हो गया है कि बाहरी तत्व है। इस भ्रम को हटाना है। परतन्त्रता और विषमता के भ्रम को हटाने के लिए उन्हें ही छोड़ना होगा। छोड़ने के प्रयत्नों की लम्बी मीमांसा को संक्षेप में त्याग और तप कहा गया है । त्याग और तप से आत्मा, परिग्रह के सारे अभिग्रहों से मुक्त हो जाता है।
स्वतन्त्रता और समानता की अनुभूति गृहस्थ दशा में भी उतनी ही आवश्यक है जितनी कि साघु-दशा में । अंश भेद रहता है, वह रहेगा यदि हम आर्थिक समता को गृहस्थ जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं तो उसके लिए भी एक वृत्ति का विकास करना होगा। वृत्ति का विकास आध्यात्मिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उदाहरण के लिए, हम कहते हैं -जनतन्त्री या लोकतन्त्री शासन व्यवस्था में नया समाज बनाने के लिए जन-जन का योग चाहिए। केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। जन-सहयोग जो एक आध्यात्मिक वृत्ति है उससे ही नये समाज की रचना होगी। इससे यह स्पष्ट हुआ कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक समानता में आस्था रखने वाला हो, आत्म विश्वासी हो, वह वैचारिक दृष्टि से सामाजिक विषमताओं को अमान्य करे और उन्हें मन, वचन और काय के सुसंयत आचरण से दूर करे। त्याग और संयम के विशिष्ट आचरण से ही भौतिक विषमतानों को किसी हद तक दूर किया जा सकता है।
जन सहयोग प्रबद्ध होना चाहिए। उसे पाने के लिए जैनदर्शन ने एक दृष्टि दी है। वह है अनेकान्त दृष्टि, पदार्थों के स्वरूप को समझने की दृष्टि । वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है। वह अनन्त रूपात्मक है। इन रूपों को गुण भी कहा जाता है। ये गुण साधारणत: किसी भी व्यक्ति के द्वारा एक काल में देखे, समझे या बताये नहीं जा सकते। अनेकान्त दृष्टि विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन्न कालों में विभिन्न अपेक्षाओं से कहे गये एक ही वस्तु के अनेक गुणों को समझने में सहायक होती है। इससे समाज में सहिष्णुता, सह-अस्तित्व और निष्पक्षता के भावों का उदय होता है। संस्कृतियों के समन्वय में, सर्वधर्म समभाव में भी यही दृष्टि रहती है। इसे सम्यग्दृष्टि भी कहते हैं । इसी दृष्टि का एक रूप लोक दृष्टि है जो लोकहित के मूल में रहती है। इस दृष्टि में सत्य के प्रति अभिनिवेश रहता है, यह मानव को दुराग्रहों से बचाती है। इसी दृष्टि को कुछ इस प्रकार से भी कहा जा सकता है-हम स्वयं दुराग्रही न हों, दूसरों को अपनी बात तो कहें पर उसे उन पर लादें नहीं, सत्य बहु-प्रायामी होता है, भाषा के द्वारा उसके किसी एक अंश की ही किसी
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