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के एक अन्य कलचुरि शासक विजयसिंह के कलचुरि सम्वत् 944 (सन् 1193 ईस्वी) के रीवा प्रस्तर अभिलेख में बौद्ध धर्म के ज्ञान के देवता मंजू घोष की प्रशंसा की गई हैं। __कलचुरि साम्राज्य के विभिन्न स्थानों पर अत्यंत सुंदर बौद्ध प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जो उस युग की शिल्पकला का प्रतिनिधित्व करती हैं। बौद्धों का त्रिरत्न चिंह ईंटों और सिक्कों पर भी मिलता है।
त्रिपुरी, गोपालपुर, बिलहरी, कारीतलाई तथा राजाराम डुंगरिया से बौद्ध प्रतिमायें प्राप्त हुयी हैं। निश्चय ही यह यहाँ बौद्ध धर्म के विकसित होने की कहानी कहती हैं। कलचुरिकाल में ध्यानी बुद्धों से बोधिसत्व की प्रतिमाओं का विकास दिखायी देता है।पाँच ध्यानी बुद्धों से विकसित (वैरोचन, अक्षोम्य, रत्नसंभव, अभिताभ, अमोघसिद्धि, बङ्कासत्व) पाँच बोधिसत्व पाँच तत्वों (रूप,वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) के सूचक हैं जो निरंतर गतिशील और रचना कार्यों में लगे रहते हैं। इनमें प्रमुख रूप से अवलोकितेश्वर (पद्मपाणि) की प्रतिमा महत्वपूर्ण है।बौद्ध ग्रंथ महावस्तु अवदान में इन्हें भगवान कहा गया।
कलचुरि कालीन त्रिपुरी साम्राज्य के शासक कला के महान उन्नायक थे।कलाकारों ने बौद्ध प्रतिमाओं के निर्माण में शास्त्र सम्मत परम्पराओं के अनुसरण के साथ ही स्थानीय मान्यताओं का भी रूपायन किया।त्रिपुरी साम्राज्य से प्राप्त बौद्ध प्रतिमाओं का मुखमंडल प्रशांत, कोहनी नुकीली, मस्तक पर अलंकृत मुकुट, राजसी परिधान, सुंदर अलंकरणों की बहुलता, प्रलम्बकर्ण, आजानुबाहु, विस्तृत वक्षस्थल, सुकुमार एवं कमनीय काया, आदि विशेषताओं सहित अंकन किया गया है। प्रतिमाओं के परिकर में विद्याधर, चँवरधारिणी, उपासक-उपासिकाओं, सिंह आदि का अंकन किया गया है। प्रतिमायें विभिन्न प्रकार की मुद्राओं एवं आसन में दर्शायी गयी है। यथा- भूमि स्पर्श मुद्रा, व्याख्यान मुद्रा, धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा, अभय मुद्रा, वरद् मुद्रा, ललितासन, पद्मासन इत्यादि। कतिपय प्रतिमाओं की पाद-पीठ पर लेखों का अंकन भी किया गया है। ___ यद्यपि कलचुरि शासक मुख्यतः शैव थे तथापि वैष्णव, जैन व बौद्ध धर्म को समान रूप से सरंक्षण प्राप्त था। कलचुरि शासक विजयसिंह का कलचुरि सम्वत् 944 का रीवा प्रस्तर अभिलेख बौद्ध ज्ञान देवता मंजूघोष की वंदना से