Book Title: Indian Society for Buddhist Studies Author(s): Prachya Vidyapeeth Publisher: Prachya VidyapeethPage 23
________________ (8) संस्कृत बौद्ध कवियों की दृष्टि में लोकोपकार शान्ति लाल सालवी, वाराणसी यह सर्वविदित है कि समस्तध शास्त्रोंम, सम्प्रदायों एवं सिद्धान्तों के मूल में लोकोपकार निहित होता है । 'लोकोपकार' दो शब्दों से मिलकर बना है लोक तथा उपकार लोक से तात्पवर्य होता है - मनुष्य समाज के साथ-साथ अन्यप प्राणिवर्ग तथा भौतिक जगत् । उपकार से आशय हित है । यह उपकार सामान्यातया तीन भागों में विभक्त किया गया जा सकता है - स्वोगपकार, परोपकार एवं लोकोपकार । परोपकार एवं लोकोपकार में प्रवृत्त होने से पूर्व मनुष्य को सर्वप्रथम स्वोगपकार करना चाहिए क्यों कि स्वलयं को स्वृस्थत एवं सुदृढ बनाना चाहिए तभी हम परोपकार एवं लोकोपकार कर सकते हैं। कहा भी गया है कि “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्” अर्थात् व्यमक्ति का प्रथम धर्म है - सबसे पहले अपने आप को स्वास्थ रखे । स्वस्थ मय' व्यक्ति ही परोपकार करके पुण्य अर्जन कर सकता है- “ परोपकारः पूण्याय" । बौद्ध कवियों के काव्यों में उपकार के बीज सर्वत्र व्यानप्तभ है यथा- अध्व घोष ने अपने बुद्धचरितम् में यह स्पष्ट निर्देश दिया है कि भगवान् बुद्ध के जन्म का कारण लोक कल्याण था। बौद्ध मत के प्रादुर्भाव, विकास और उसके चरम स्वयरूप का एक मात्र घटक लोकोपकार रहा है उसकी लोकोपकारक दृष्टि निःसन्देह हम सभी के लिए अभिनन्दनीय है। ***** बुद्ध काल में पशुपालन दीपक कुमार, दिल्ली बुद्ध काल में कृषि का पर्याप्त विकास एवं विस्तार होने के बावजूद पशु पालन महत्वपूर्ण व्यवसाय बना रहा। कुछ लोगों का यह प्रमुख पेशा था और कुछ का सहायक। बुद्ध काल में पशु पालन एवं कृषि के बारे में जानकारी बौद्धPage Navigation
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