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कहानी थोड़ी भिन्नता से वर्णीत है। पायासिय सूत्र में भी आत्मा के अस्तित्व को विभिन्न उदाहरणों से खण्डित करने व सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। पायासि सूत्र में भाषा के किचित्त अन्तर के साथ चोर, कुभि आदि की उपमाएं समान ही मिलती है। शब्दों का कुछ हेर-फेर भले ही है, किन्तु दोनों में जीव व शरीर की भिन्नता को उदाहरण द्वारा समझाया गया है। राजप्रश्नीयसूत्र का रचनाकाल
राजप्रश्नीयसूत्र के नामकरण के पश्चात् यदि हम इसके काल के सम्बंध में विचार करें, तो राजप्रश्नीयसूत्र का सबसे प्रथम उल्लेख हमें 'नंदी सूत्र' में कालिक सूत्रों की जो सूची दी गई है, उसमें उपलब्ध होता है। नन्दीसूत्र का रचनाकाल ईसा की पांचवीं शताब्दी प्रायः सुनिश्चित है, किंतु इसे राजप्रश्नीयसूत्र के वर्तमान संस्करण की उत्तर-तिथि ही माना जा सकता है। राजप्रश्नीयसूत्र का अंतिम भाग, जो केशी कुमार श्रमण और पएसी के संवादरूप है, का अस्तित्व उसके पूर्व भी होना चाहिए, क्योंकि राजप्रश्नीयसूत्र के इस अंतिम भाग की समरूपता बौद्ध त्रिपिटक साहित्य के दीघनिकाय के पायासिसुत्त से है और पायासिसुत्त ईस्वी पूर्व की रचना है। ‘पएसी' या 'पायासि' का यह कथानक ई० पू० छठवीं शती का होगा, जिसे दोनों परम्पराओं ने अपने अनुसार थोड़ा-बहुत परिवर्तित करके अपने ग्रंथों का अंग बना दिया है, क्योंकि पायासिमुत और राजप्रश्नीयसूत्र का वह अंतिम भाग, जो जीव के पुनर्जन्म, परलोक आदि को सिद्ध करता है, पर्याप्त रूप में समानता रखता है, जो इस बात का प्रमाण है कि राजप्रश्नीयसूत्र का यह अंतिम विभाग निश्चित ही ईस्वी पूर्व की रचना है।
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पालि व प्राकृत भाषा : समरूपता व विभेद
तृप्ति जैन, शाजापुर
बौद्ध और जैन, श्रमण संस्कृति की दो प्रमुख धाराएं है। इन दोनों धाराओं के वाहक भगवान बुद्ध तथा भगवान महावीर रहे। भगवान बुद्ध ने जो कुछ