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है। ज्ञातव्य है कि 'रायपसेणिय'- इस प्राकृत शब्द का संस्कृत रूप राजप्रसेणकीय या राजप्रसेनजित चाहे सम्भव भी हो, फिर भी यह अधिक समीचीन नहीं है, क्योंकि इसमें जिस राजा के साथ संवाद हुआ है, उसे अर्द्धमागधी आगम साहित्य में 'पएसी' और पालि त्रिपिटक में 'पयासी' कहा गया है। पएसी या पायासी को प्रसेनजित का संक्षिप्त रूप नहीं माना जा सकता है। ___मैं राजा प्रसेनजित नाम का पक्षधर हो सकता था, यदि दीघनिकाय के पायासिसुत्त में प्रसेनजित और कुमार श्रमण के मध्य संवाद होने का उल्लेख होता, किंतु सर्वत्र कुमार श्रमण और ‘पएसी' या ‘पयासी' के मध्य हुए संवाद का ही उल्लेख है, न कि कुमार श्रमण और प्रसेनजित के मध्य हुए किसी संवाद का। दूसरे, प्राकृत ‘पीएसी' और पालि ‘पायासि' नाम वस्तुतः प्रसेनजित का वाचक नहीं है, क्योंकि न तो प्राकृत के किसी भी नियम से प्रसेनजित का 'पएसी' रूप बनता है और न पालि में ही प्रसेनजित का 'पायासि' रूप बनता है। दूसरे, दोनों परम्पराओं में प्रसेनजित को कोशल का राजा कहा गया है और उसकी राजधानी श्रावस्ती बताई गई है, जबकि ‘पएसी' या 'पायासि' को अर्थ केकय देश का राजा कहा गया है और उसकी राजधानी सेयंविया (श्वेताम्बर) कही गई है, यद्यपि श्वेताम्बर श्रावस्ती के समीप ही थी, अधिक दूर नहीं थी। दीघनिकाय के अनुसार ‘पएसी' या 'पायासि' प्रसेनजित के अधीनस्थ एक राजा था, तभी उसे प्रसेनजित का भय बताकर यह कहा गया था कि जब प्रसेन यह सुनेगा कि ‘पएसी' नास्तिकवादी है, तो क्या कहेगा?
राजा प्रसेनजित एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व अवश्य हैं और उनका उल्लेख जैन एवं बौद्ध साहित्य में भी पाया जाता है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ दीघनिकाय है। उसके द्वितीय विभाग में पायासिसुत्त उपलब्ध होता है, किंतु उसका सम्बंध भी प्रसेनजित के प्रश्नोत्तर से नहीं है, अपितु 'पायासि' से हुए प्रश्नोत्तर से है। उसमें भी पुनर्जन्म, परलोक की सिद्धि के लिए प्रायः वे ही तर्क दिए गए हैं, जो हमें राजप्रश्नीयसूत्र में मिलते हैं, अतः इसका संस्कृत 'राजप्रश्नीयसूत्र' नाम ही समुचित माना जा सकता है, क्योंकि इसमें राजा के प्रश्नों का समाधान किया गया है। राजप्रसनिय की विषय वस्तु पसेनीय सूत्र में निम्न रूप में यथावत् उपस्थित है। रायसेन के सूत्र में यह