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सदी से लेकर द्वितीय सदी ईस्वी तक बौद्ध धर्म यहाँ लोकप्रिय रहा। 1952 के त्रिपुरी उत्खनन में सातवाहन कालीन स्तरों में दो ईंट निर्मित भवन संरचनायें प्राप्त हुई थीं जिनको श्री दीक्षित ने बौद्ध विहार माना था। ठप्पांकित मृदभांड इसी स्तर से प्राप्त हुये थे जिन पर स्वस्तिक, पूर्णघट और त्रिरत्न चिंह अंकित है । इस काल में नर्मदा घाटी एवं मालवा व निमाड़ क्षेत्र में भी बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के पर्याप्त प्रमाण मिले है।
सातवाहन काल के बाद त्रिपुरी में बौद्ध धर्म का प्रचार बोधिवंश के शासकों द्वारा किया गया। ये संभवत: बौद्ध थे। इस वंश का नाम बोधि, गौतम के बुद्धत्व की प्राप्ति को सूचित करता है । उनके सिक्कों पर अंकित वृक्ष भी संभवतः बोधिवृक्ष ही है।
उत्तर गुप्तकाल में त्रिपुरी क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रचलित हो जाने के निश्चित साक्ष्य प्राप्त हुये है। तेवर (प्राचीन त्रिपुरी) से एक मृणमुद्रा प्राप्त हुई है जिस पर उत्तरगुप्त कालीन ब्राह्मी लिपि में 'श्रीनालंदा महाविहाराचार्यभिक्षुसंघस्य' लेख उत्कीर्ण है। गोलाकार पक्की मिट्टी की इस मुद्रा पर एक चैड़ी परिधि के बीच उल्टे क्रम में यह लेख अंकित है, जिसका अर्थ है 'श्री नालंदा महाविहार के आर्य (सम्माननीय) भिक्षु संघ की मुद्रा' । नालंदा से त्रिपुरी आये किसी भिक्षु या अधिकारी द्वारा यह मुद्रा (मुहर) अपने साथ स्मृति चिंह के रूप में लायी गई होगी । इसका प्रथम प्रकाशन 1968 में हुआ । यह त्रिपुरी में बौद्ध धर्म की उपस्थिति का ठोस प्रमाण है ।
कलचुरि काल में त्रिपुरी तथा आसपास के क्षेत्र से बौद्ध प्रतिमाओं की प्राप्ति से इस राज्य में बौद्धधर्म की लोकप्रियता का ज्ञान होता है । बुद्ध, बोधिसत्व, तारा, हारिति, कुबेर एवं मारिचि देवी की प्रतिमाओं की प्राप्ति इसके परिचायक है। त्रिपुरी के कलचुरि नरेश कर्ण के समय का सारनाथ शिलालेख जो कलुचरि सम्वत् 810 ( सन् 1061 ईस्वी) का है, में एक बौद्ध धर्मावलम्बीधमेश्वर की पत्नी मामका का उल्लेख है जो महायान सम्प्रदाय में दीक्षित थी। मामका ने 'अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता' नामक ग्रंथ की एक प्रति तैयार करवाकर श्री षड्धर्मचक्रप्रवर्तनमहाबोधि महाविहार के भिक्षुओं को इस निवेदन के साथ दी थी कि बिहार में प्रतिदिन उसका पाठ किया जाये । त्रिपुरी