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प्रथम अध्याय
मरु-गुर्जर का प्रारम्भ और प्राचीन परम्परा
मरु-गुर्जर की निरुक्ति
भाषाओं के आविर्भाव और तिरोधान की तिथि निश्चित कर पाना सम्भव नहीं होता क्योंकि प्रत्येक भाषाएँ पूर्ववर्ती भाषा के आधार पर विकसित होकर परवर्ती भाषा का रूप ग्रहण करती हैं। यह एक अनवरत प्रक्रिया है। विकास प्रक्रिया किसी नियत तिथि को घटित होने वाली घटना नहीं है। अतः इस सम्बन्ध में निश्चित तारीख और महीने का उल्लेख सम्भव नहीं होता, अपितु हमें दशकों और शताब्दियों की सीमा मर्यादित करनी पड़ती है। प्रायः सभी भाषा-वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी तक शौरसेनी या पश्चिमी अपभ्रंश उत्तर भारत के बड़े भूभाग की साहित्य-भाषा रही। वि० सं० की ११वीं शताब्दी में रचित 'प्राकृतपैंगलम्' की हस्तलिखित टीका पर टिप्पणी करते हुए सर भंडारकर ने स्पष्ट किया है कि ११वीं शताब्दी तक अपभ्रंश भाषा का विकास काल था और यह न केवल साहित्यरचना का माध्यम, बल्कि जनता द्वारा बोली भी जाती थी। इसके कुछ ही समय बाद १२वीं शताब्दी में आचार्य हेमचन्द्र ने शब्दानुशासन द्वारा इसे व्याकरण के नियमों में बांध दिया और इसका एक साहित्यिक रूप रूढ़ हो गया जिसका प्रयोग साहित्य में सैकड़ों वर्षों तक भविष्य में भी होता रहा, किन्तु जनता की बोली बदलती रही और वह आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं-हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती आदि के रूप में क्रमशः विकसित होने लगी। यह परिवर्तन की प्रक्रिया वि० की १२वीं से १४वीं शताब्दी
1. The last two forms (the Apabhramsa and the vernacular) must
represent the vernacular speech of period when the poets wrote... The forms of the language used by them were the form current about the time of Karna i e. in the first half of the Eleventh cent. श्री मो० द० देसाई द्वारा उद्धत "जैन गुर्जर कविओ" भाग १ प० ३२ ।
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