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मरु-गुर्जर की निरुक्ति इस सामान्य विकासक्रम का एक छोटा चित्र प्रस्तुत करके अब हम अपभ्रश के भाषा वैज्ञानिक विशेषताओं पर भी थोड़ा विचार करेंगे ताकि मरुगुर्जर के भरषा वैज्ञानिक विकास का सूत्र ढंढा जा सके। अपभ्रंश और मरुगुर्जर का प्राचीन साहित्य प्रायः पद्यबद्ध है। पद्य में कवियों को भाषा सम्बन्धी कुछ छूट होती है जिसका कहीं-कहीं दुरुपयोग भी मिलता है। इस छूट में लघु को गुरु और गुरु को लघु करके छन्द की मात्रा ठीक करनी अर्थात् छन्द-पति के लिए मात्रा सम्बन्धी इस छूट को तो हेमचन्द्र ने नियम ही मान लिया है। जैसे ज्वाला >जाला >जाल आदि । इसी प्रकार स्वार्थक प्रत्यय लगाकर (अ, अल, इल्ल आदि) शब्द रूप बना लेना जैसे मुक्त > मुक्क>मुक्कओ और पंकित >पंकिय > पंकियउ आदि रूप भी चलते हैं ।
स्वर और ध्वनियां-महाराष्ट्री प्राकृत की प्रायः सभी ध्वनियाँ और स्वर अपभ्रश में मिलते हैं । जैन महाराष्ट्री में 'य' श्रुति का प्राधान्य है जैसे योजनम् (संस्कृत) का योअणं (प्राकृत) और योथणं (अपभ्रंश) रूप सिद्ध होता है । प्राकृत की सभी व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अपभ्रश में मिलती हैं । हेमचन्द्र ने इसकी कुछ निजी विशेषताओं की ओर भी संकेत किया है जैसे अपभ्रश में केवल 'ह', 'म्ह', 'ल्ह' संयुक्त ध्वनियाँ ही आदि में आ सकती हैं इसलिए व्यास का वासु और दृष्टि का देट्ठि रूप बनता है । इसी प्रकार 'म' का वं, जैसे ग्राम का गाँव रूप भी इसकी ध्वनि सम्बन्धी विशेषता से ही सिद्ध होता है।
अपभ्रंश में व्यञ्जनान्त (हलन्त) शब्द नहीं मिलते। संस्कृत के हलन्त शब्दों की अन्तिम व्यञ्जन ध्वनि या तो लुप्त हो जाती है या अं जोड़कर अकारान्त बना दी जाती है जैसे मण (मनस्), आउस (आयुष), अप्पण (आत्मन ) आदि। इसी प्रकार अपभ्रश के सभी शब्द स्वरान्त होते हैं।
व्याकरण - अपभ्रंश में तीन लिंग होते हैं । अ, इ, उ, स्वर ध्वनियों वाले (अन्त) शब्द तीनों लिंगों में होते हैं और आ, ई, ऊ, वाले (अन्त) स्त्रीलिंग होते हैं । हेमचन्द्र ने अपभ्रंश के लिंग को अतंत्र बताया है। लिंग सम्बन्धी यह शिथिलता राजस्थानी और हिन्दी के दो लिंगों में सरलीकृत हो गई है। इसमें दो ही वचन होते हैं न कि संस्कृत की तरह तीन; अर्थात् व्याकरण सरलीकरण की ओर उन्मुख हो गया था जिसका प्रभाव मरुगुर्जर के वचन पर भी पड़ा है। सरलीकरण की प्रवृत्ति प्राकृत से ही
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