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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
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'पायहुं कार्य कमलु समु भणियउ खणतं भंगुरु कहहिं ण रिक्खइ वासरि कहिमिण दिट्ठरं कण्णा नह पहाहि णं अर्थात् उसके पैरों को कमल के समान कैसे कहूँ । वह क्षणभंगुर कहा गया है । उसके नखों की प्रभा से दिन में नक्षत्र नहीं दिखाई देते । ' पुष्पदन्त न कृष्ण कथा का मनोहर वर्णन किया है । रामकथा में कवि का ध्यान कथा पर अधिक रहा, वर्णन विस्तार पर कम, किन्तु कृष्ण कथा में कवि का मन वर्णन सोन्दय में अधिक रमा है । इसकी शैली स्वयंभू की अपेक्षा अधिक अलंकृत, श्लिष्ट, रूढ़ और कहीं-कहीं कृत्रिम लगती है । स्वयंभू में सहज स्वाभाविकता है पर पुष्पदन्त में सायास अलंकृति है । डॉ० भोलाशकर व्यास का विचार है कि इन पर त्रिविक्रम भट्ट का प्रभाव पड़ा होगा जो श्लेष और दूरारूढ़ कल्पनाओं के प्रेमी थे । डा० भयाणी ने स्वयभू को अपभ्रंश का कालिदास और पुष्पदन्त को भवभूति कहा है किन्तु डा० भा० श० व्यास कहते हैं कि पुष्पदन्त की तुलना भवभूति के बजाय माघ से करना अधिक उपयुक्त है क्योंकि इसकी कथा में माघ का पांडित्य और चमत्कार है । यह महापुराण पी० एल० वंद्य द्वारा सम्पादित होकर माणिक्यचन्द्र जन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत तीन खण्डों में प्रकाशित हा चुका है । इसमें मात्रिक छंदों का प्रायः प्रयोग हुआ है । भाषा शिष्टजनोचित है किन्तु इसके अनेक शब्द प्रयोग आर्य भाषा के शब्दरूपों से मिलते-जुलते है । पुष्पदन्त का महापुराण महाभारत की शैली का विकसनशील महाकाव्य हे और जैसे महाभारत के सम्बन्ध में कहा गया है 'यदि हास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्' उसी प्रकार पुष्पदन्त ने स्वयम् लिखा है 'किंचा - यद्यदिहास्ति जैन चरिते नान्यत्र तद्विद्यते, द्वावतो भावेश पुष्पदशनौ सिद्ध यथादृशम्।' अर्थात् जो यहां है वह अन्यत्र कहीं नहीं है ।
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आपकी णायकुमारचरिउ ( नागकुमारचरित ) और जसहरचरिउ नामक खण्ड काव्य भी प्रकाशित रचनायें हैं । प्रथम, प्रो० हीरालाल जैन द्वारा और द्वितीय, डा० परशुराम लक्ष्मण वैद्य द्वारा सम्पादित तथा कारंजा जैन पब्लिकेशन सोसाइटी द्वारा प्रकाशित हैं । नागकुमारचरित एक राजा की दो रानियों और उनके दो पुत्रों - श्रीधर और नागकुमार के पारस्परिक कलह की कहानी है । पुष्पदन्त ने इसमें अपनी बहुज्ञता के
१. डॉ० भोलाशंकर व्यास - हिन्दी सा० का बृ० इ० भाग १ पृ० ३४१
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मुणियउं । णट्ठइ ।”
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