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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास और विस्तृत प्रदेश में फैल गई। वलभी के राजा धरसेन ने अपने शिलालेख में अपने पिता गुहसेन (छठी शती) को संस्कृत, प्राकृत के साथ अपभ्रंश की प्रबन्ध रचना में भी निपुण बताया है अर्थात् छठी शताब्दी तक अपभ्रंश में काव्य रचना भी प्रारम्भ हो गई थी। इसलिए अपभ्रंश साहित्य का प्रारम्भ छठी शताब्दी से मानने के पक्ष में अधिकतर विद्वान् सहमत हैं । काव्योपयोगी भाषा के रूप में इसका उल्लेख छठी शताब्दी में ही भामह ने भी किया था। "शब्दाथौं सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद्विधं । संस्कृतं, प्राकृतं चान्यदपभ्रंशं इति त्रिधा ।'' इसमें तीन प्रमुख भाषाओं की चर्चा है जिनमें गद्य, पद्य लिखा जा रहा था। इसके बाद ८वीं शताब्दी में दंडी ने चार भाषाओं के साथ अपभ्रंश को भी सम्मानपूर्वक स्थान दिया। ९ वीं में रुद्रट ने अपभ्रंश के प्रदेशों के आधार पर कई भेद भी गिनाये अर्थात् नवीं शताब्दी तक इसका विस्तार कई प्रदेशों में हो चुका था और वहाँ इसकी स्वतन्त्र प्रादेशिक शैलियाँ विकसित हो चुकी थीं। यह इसके विकास की प्रौढ़ावस्था का सूचक है। ___अपभ्रंश का पुष्कल उल्लेख १० वीं शताब्दी के प्रसिद्ध आचार्य राजशेखर ने किया है। उन्होंने काव्य पुरुष का इसे जघन बताया है “शब्दार्थों ते शरीरं संस्कृतं मुखं, प्राकृतं बाह जघनमपभ्रंशः।" साथ ही राजदरबार में संस्कृत, प्राकृत के कवियों के साथ अपभ्रंश के कवियों को राजवेदिका की पश्चिम दिशा में सम्मानित आसन प्राप्त होने का भी उल्लेख किया है। इन कवियों के आसन के पीछे चित्रकार, रंगकार, रत्नकार, कसबी, सोनी, सुनार, लुहार आदि कारीगरों के बैठने का उल्लेख इस बात का सूचक है कि यह भाषा वणिकों, कारीगरों और सामान्य जनता की भाषा थी और इनका इसे व्यापक समर्थन प्राप्त था। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि परिचारक वर्ग अपभ्रंश भाषा प्रवीण होता है "अपभ्रंशप्रवीणः परिचारक वर्ग।" इससे स्पष्ट है कि जनता के मध्यम और निम्न वर्ग के बीच इसका व्यापक प्रचार था, अर्थात् यह जन भाषा थी। यह संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त प्राकृतों की तरह कृत्रिम या किताबी भाषा नहीं थी बल्कि लोकप्रिय, जनप्रचलित आम भाषा थी। इसका प्रसारक्षेत्र समस्त मरु, ढक्क और भादा. नक तक था। "सापभ्रंश प्रयोगाः सकलमरुभुवष्टक्कभादानकाश्च ।" इसके अलावा सौराष्ट्र और त्रवण (पश्चिमी राजस्थान) के कवि भी अपभ्रंश प्रयोग में पटु बताये गये हैं। इस प्रकार यह बहुत बड़े क्षेत्र की सामान्य १. काव्यालंकार १, १६, २८
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