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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
६७ भाव की दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मरु-गुर्जर में प्राप्त समस्त जैन साहित्य निश्चय ही एक श्रेणी का है। उसमें सर्वत्र एक विशिष्ट धार्मिक वातावरण मिलता है। जैन कवियों ने धर्म का साहित्य से समन्वय स्थापित करने का स्तुत्य प्रयास किया है। यह सच है कि जिस समय जैन कवि काव्यरस की ओर झुकता है उस समय उसकी कृति सरस काव्य का रूप धारण कर लेती है और जब धर्मोपदेश का प्रसंग आता है तो वह पद्यबद्ध उपदेशात्मक कृति बन जाती है। स्वयंभू, पुष्पदन्त, योगीन्दु, रामसिंह आदि की रचनाओं में निश्चय ही भाव और रस की प्रवणता है किन्तु मरुगुर्जर जैन साहित्य में ऐसी भी अनगिनत पद्यबद्ध रचनायें हैं जिनमें श्रावकों के लिए आचार, नियम, व्रत आदि की व्याख्या ही की गयी है । देवसेन कृता सावयधम्म दोहा, जिनदत्तसूरि कृत उपदेशरसायनरास आदि ऐसी तमाम रचनाओं का नामोल्लेख किया जा सकता है। जैन साहित्य विपुल और बहआयामी है। जैनाचार्यों ने न केवल धार्मिक एवं दार्शनिक विषयों पर रचनायें कीं बल्कि साहित्य-शास्त्र, काव्य, नाटक, ज्योतिष, आयुर्वेद, कोष, व्याकरण, गणित, राजनीति, पुराण तथा अन्यान्य विषयों पर विपुल साहित्य काव्य की नाना विधाओं में नाना छंदों और देसियों द्वारा प्रस्तुत किया है। __जैन साहित्य का प्रथम परिचय-यह विशाल साहित्य बहुत काल तक बाहरी दुनियाँ के लिए अनजाना था। इसका प्रथम परिचय देने का श्रेय यूरोपीय विद्वानों को है । सर्वप्रथम सन् १८४५ में अंग्रेज विद्वान कावेल ने वररुचि के 'प्राकृत प्रकाश' का एक सुसंपादित संस्करण प्रकाशित किया । सन् १८५७ में जर्मन विद्वान् पिशेल ने हेमचन्द्र के व्याकरण का विधिवत् सम्पादन कर उसे प्रकाशित कराया जिससे प्राकृत और अपभ्रंश के अध्ययन की दृढ़ नींव पड़ी। पिशेल ने ही सन् १९०० ई० में प्राकृत व्याकरण पर अपना विद्वत्तापूर्ण अध्ययन प्रकाशित कर के दुनियाँ के तमाम पाठकों का ध्यान इधर आकृष्ट किया। जर्मनी के दूसरे विद्वान् हर्मन जेकोबी ने विद्वत्तापूर्ण भूमिकाओं के साथ समराइच्चकहा, पउमचरिय आदि का सम्पादित संस्करण प्रकाशित किया। सन् १९१८ में भविस्सयत्तकहा और सन् १९२१ में सनत्कुमार के सम्पादित संस्करणों के प्रकाशन के साथ इस क्षेत्र में अध्ययन की विपुल संभावनाओं का लोगों को अनुमान हुआ।
भारतीय विद्वानों में जैन-प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन में महत्त्वपूर्ण कार्य म० म० हरप्रसाद शास्त्री, श्री पी० डी० गुणे, प्रो० हीरा लाल जैन, डॉ० शहीदुल्ला, डॉ० बाबूराम सक्सेना, महापंडित राहुल सांकृ
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