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मरु- गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
त्यायन के अलावा सर्वश्री बागची, भायाणी, देसाई, दलाल, उपाध्ये, नाहटा और मुनि जिनविजय आदि मनीषियों ने किया है। अब तो इधर तमाम शोधार्थी कार्यरत हो गये हैं और जैनभांडारों में भी पुरानी रूढ़िवादिता कम होती जा रही है । वे लोग प्रतियाँ प्रसन्नतापूर्वक उपलब्ध कराते हैं तथा अनेक विद्वान् निरन्तर नये नये ग्रन्थों की खोज करके उनका सम्पादनप्रकाशन कर रहे हैं । इस प्रकार इस क्षेत्र में अध्ययन का विस्तृत क्षितिज अनुदिन उद्घटित हो रहा है ।
मरु- गुर्जर साहित्य का संरक्षण - वैसे तो १२ वीं शताब्दी में समूचे भारत में शैव मत का प्रभाव था किन्तु पूर्वी भारत में तंत्र-मंत्र बहुल बज्र - यानी सम्प्रदाय का और पश्चिमी भारत में जैनधर्म का पर्याप्त प्रभाव था । धर्म के नाम पर कोई असहिष्णुता न थी और न कोई उपद्रव । वस्तुतः सर्वधर्मसमभाव की प्रतिष्ठा भारतीय संस्कृति की निजी विशेषता रही है जो आजकल खतरे में है परन्तु उस समय कहीं भी धार्मिक विद्वेष नहीं था । दुर्भाग्यवश इसी समय देश पर धर्म के नाम पर मुस्लिम आक्रमण प्रारम्भ हुए और देशवासियों को सताया जाने लगा । इस अशान्ति के समय मध्यदेश का आदिकालीन हिन्दी साहित्य अरक्षित होने के कारण प्रायः नष्ट हो गया किन्तु अधिकांश जैन साहित्य जो अपभ्रंश और उसके बाद मरु-गुर्जर में लिखा गया, जैनशास्त्र भांडारों में सुरक्षित रह गया क्योंकि प्रभावशाली जैनाचार्यों ने मुसलमान शासकों के साथ भी अच्छा सम्बन्ध रखा और उन्होंने तमाम शास्त्र भांडार स्थापित किए। जैनधर्म के सप्तक्ष ेत्रों में तृतीय क्षेत्र का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है जिसके अन्तर्गत प्रत्येक साधु एवं श्रावक के लिए पुस्तक लेखन एवं उसका संरक्षण आवश्यक कर्त्तव्य बताया गया है | अतः जैन मन्दिरों और भांडारों में प्रतियों का लेखन तथा संरक्षण प्रधान रूप से होता रहा। इसी क्ष ेत्र में जैनसंघ द्वारा स्थापितसंचालित सैकड़ों भांडार हैं । जिनमें लाखों प्रतियाँ संग्रहीत हैं । इनमें जैसलमेर का ज्ञानभंडार, बीकानेर ज्ञानभंडार, अभय जैन ग्रंथालय. अनूप पुस्तकालय प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान आदि विशेष उल्लेखनीय हैं । इन भांडारों में सुरक्षित हस्तप्रतियों में समस्त उत्तर भारत का महत्त्वपूर्ण इतिहास सुरक्षित है । इतिहास केवल राजाओं और शासकों का ब्योरा नहीं बल्कि सन्तों, साहित्यकारों तथा सामान्य जनता और उसकी संस्कृति का प्रमाणिक अभिलेख है जो इन प्रतियों में प्रामाणिक रूप से संग्रहीत है । यहाँ अप्रामाणिकता का प्रश्न इसलिए नहीं उटता क्योंकि ये प्रतियाँ धर्मबुद्ध से प्रति अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सत्य तथ्यों पर आधारित हैं ।
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