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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास तक चलती रही। इस अवधि में उपलब्ध साहित्य की भाषा को श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने 'पुरानी हिन्दी' नाम दिया है। इसे ही राजस्थानी के विद्वान् पुरानी राजस्थानी और गुजराती के पंडित पुरानी या जुनी गुजराती कहते आये हैं। किन्तु सच पूछा जाय तो इस अवधि में हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती भाषाओं का इतना स्पष्ट विकास नहीं हो सका था कि उनमें अलगाव किया जा सके । वस्तुतः इस काल में जो भाषा साहित्य का माध्यम थी वह सर्वत्र एक ही थी। केवल लेखकों की स्थानीय विशेषताओं का अन्तर उसमें कहीं-कहीं दृष्टिगोचर है जिसके आधार पर एक ही रचना को कभी गुजराती, कभी हिन्दी और कभी राजस्थानी घोषित किया जाता रहा है।
'निरुक्ति–'मरु-गुर्जर' शब्द का प्रयोग यहां दो अर्थों में किया जा रहा है। एक तो उस सन्धिकालीन साहित्य-भाषा के अर्थ में, जो अपभ्रंश के बाद और आधुनिक हिन्दी-गुजराती के पूर्व की मध्यवर्ती या संक्रान्तिकालीन भाषा है, जिसकी कालावधि ११वीं१२वीं शताब्दी से प्रारम्भ होकर आधुनिक आर्य-भाषाओं के उदयकाल अर्थात् १५-१६वीं शताब्दी तक विस्तृत है। दूसरे अर्थ में मरु-गुर्जर शब्द का प्रयोग एक भाषा के लिए नहीं बल्कि १६वीं से १९वीं शताब्दी के बीच मरु प्रदेश एवं गुर्जर प्रदेश की भाषाओं में लिखे गये उस समग्र बृहद् जैन साहित्य के लिए है जो धार्मिक, सांस्कृतिक और अन्य अनेक समानताओं के कारण इन भाषाओं के साहित्येतिहास के ग्रंथों में प्रायः समान रूप से वर्णित होता रहा है। ___मरु-गुर्जर का विकास–'मरु गुर्जर' या पुरानी हिन्दी का विकास शौरसेनी या महाराष्ट्री से हआ जो विगत कई शदियों से समस्त उत्तर भारत की साहित्य-भाषा थी। इसके व्यापक प्रसार एवं प्रयोग के कारणों पर यथास्थान विचार किया जायेगा किन्तु यहां इतना निवेदन करना आवश्यक है कि मध्ययुग में राजपूतों का उत्थान, उनके द्वारा विभिन्न राजवंशों की स्थापना और उनके दरबारों में शौरसेनी अपभ्रंश का सम्मान इसकी वृद्धि का एक प्रमुख कारण था।। - राजस्थान एवं गुजरात में जैन धर्म का भी यथेष्ठ प्रचार एवं सम्मान था अतः १२वीं शताब्दी से १५वीं शताब्दी तक अधिकांश जैन साहित्य मरु-गुर्जर या पुरानी हिन्दी में लिखा गया जिसे भाषा की दृष्टि से हम चाहें तो मरु-गुर्जर काल कह सकते हैं। यह मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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