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मरु-गुर्जर की निरुक्ति अपभ्रंश मिश्रित पूरानी हिन्दी की रचनायें मिलती हैं। धीरे-धीरे अपभ्रंश पुरानी हिन्दी या जुनी गुजराती के रूप में परिणत हो रही थी। धर्मसूरि कृत जम्बू स्वामी रासा की भाषा को स्व० दलालजी ने जुनी गुजराती और श्री नाथूराम प्रेमी ने पुरानी हिन्दी कहा है, और दोनों ही ठीक हैं क्योंकि जुनी गुजराती और पुरानी हिन्दी दो भाषायें नहीं हैं बल्कि एक ही हैं जिन्हें हम मरु-गुर्जर कह रहे हैं।' __जैन गुर्जर साहित्य के आधुनिक अध्येता डॉ० हरीश का कथन है कि नागर अपभ्रंश से विकसित हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी का १३वीं, १४वीं और १५वीं शताब्दी (विक्रम) में तो ऐक्य है ही आगे १६वीं, १७वीं शताब्दियों में भी इन तीनों भाषाओं में साधारण प्रान्तीय भेदों को छोड़कर कोई बड़ा भाषावैज्ञानिक अन्तर नहीं मिलता, इसलिए आगे भी इनके साहित्य का इतिहास एक जैसा ही है और इनका एकत्र वर्णन संगत है।' वे आगे लिखते हैं कि अपभ्रंश का प्रयोग राजस्थान, गुजरात, मगध और महाराष्ट्र में अधिक हुआ। इसमें से राजस्थान, मालवा और गुजरात में व्यवहृत अपभ्रंश आगे चलकर (१२वीं शताब्दी) 'मरु-गुर्जर' भाषा के रूप में विकसित हुई और इसी में अधिकांश जैन साहित्य रचा गया। धनपाल कृत 'सत्यपुरीय महावीर उत्साह' (११-१२वीं) इस भाषा की प्राचीनतम रचना है। यह एक उल्लासप्रधान गीत है जिसे हम अपभ्रंश और हिन्दी के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी मानते हैं । श्री अगरचन्द जी नाहटा इसे प्राचीन मरुभाषा की रचना बताते हैं और श्री मो० द० देसाई इसे जुनी गुजराती की प्राचीन कृति घोषित करते हैं। मुनि जिनविजय जी ने इसे गुजराती की सबसे प्राचीन रचना बताया है । इससे स्पष्ट है कि यह न केवल हिन्दी, राजस्थानी या अकेले गुजराती की प्राचीनतम रचना है बल्कि तीनों की समान रूप से पूर्वज है जिसे 'मरु-गुर्जर' की प्राचीन रचना मानना अधिक यूक्तिसंगत है । यह कृति सांचौर में स्थित महावीर की उस मूर्ति पर आधारित है जिसके आक्रमणकारियों के हाथों नष्ट होने से बच जाने पर भक्तों का उत्साह उभड़ पड़ा था। इसीलिए इसे उत्साह की संज्ञा दी गई है । भाषा विज्ञान की दृष्टि से इसका बड़ा महत्व है और यह परवर्ती अपभ्रंश तथा आधुनिक देशी भाषाओं को जोड़नेवाली महत्त्वपूर्ण कड़ी है। १. श्री कामता प्रसाद जैन, हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास २. डा. हरीश, आदिकालीन हिन्दी-साहित्य-शोध
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