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मरु-गुर्जर की निरुक्ति डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने कहा है कि १२वीं से १५वीं शताब्दी तक का जैन साहित्य मरु-गुर्जर साहित्य कहा जाता है । भाषा की दृष्टि से यह काल मरु-गुर्जर काल और उस काल का साहित्य मरु-गुर्जर साहित्य है।
आचार्य चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने आचार्य हेमचन्द्र के 'सिद्धहैम' से एक दोहा उद्ध त करके उसे पुरानी हिन्दी का नमूना बताया है जिसके प्रचलित राजस्थानी रूप से तुलना करने पर उसे हम राजस्थानी का दोहा आसानी से कह सकते हैं । वह दोहा इस प्रकार है
'वायसु उड्डावन्तिअ अं, पिउ दिट्ठउ सहसत्ति ।
अध्य्या वलय महिहि गया, अद्धा फुट्ट तडत्ति । इसका प्रचलित राजस्थानी रूप देखिये--
काग उडावण जावती पिय दीठो सहसत्ति ।
आधी चूड़ी कागगल आधि टूटि तडत्ति । गुलेरी जी ने व्यंग्य-विनोदपूर्ण अपनी शैली में इसका अर्थ बताते हुये लिखा है कि चड़ी के कागगल में जाने से अशुभ का भय भी खत्म हो गया और निशाना भी ठीक बैठ गया ।' सारांश यह कि प्राचीन राजस्थानी या मरु-गुर्जर का एक ही उद्गम स्रोत और एक ही प्रसार-क्षेत्र होने के कारण उनमें एक निश्चित अवधि तक पर्याप्त समानता रही है । अपभ्रंश से उद्भूत इस संक्रमणकालीन भाषा को पुरानी हिन्दी या मरु-गुर्जर अथवा राजस्थानी या जुनी-गुजराती आदि नाम देने से कुछ तात्त्विक अन्तर नहीं आता। गुलेरी जी ने वहीं लिखा है "अपभ्रंश एक देश की भाषा नहीं थी। कहीं-कहीं नहरों का पड़ोस होने से उसे नहर के नाम से भले ही पुकारते हों किन्तु वह देशभर की भाषा थी जो नहरों के समानान्तर बहती चली जाती थी। वैदिकभाषा, सच्ची संस्कृत, सच्ची प्राकृत, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी, हिन्दी, देश की एक ही भाषा रही है। पंडितों की संस्कृत, वैयाकरणों की या नाटकों की प्राकृत, महाराष्ट्री या ऐसे ही नाम के अपभ्रंश, पश्चिमी राजस्थानी या पुरानी गुजराती सब इसकी sideshadow's हैं, नट की न्यारी-न्यारी भूमिकायें हैं।' १. डा० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी साहित्य का सामान्य परिचय २. आ० गुलेरी 'पुरानी हिन्दी' पृ. ७६ ३. वही
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