Book Title: Hindi Gujarati Dhatukosha
Author(s): Raghuvir Chaudhari, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 15
________________ पूर्वकार्य का अध्ययन “भर्तृहरि ने कहा भी है कि प्रकृति, प्रत्यय आदि की सारी व्यवस्था कल्पना ही है. शब्दों की इस प्रकार से क्रमबद्ध रचना नहीं होती."" व्यवहार में पाए जाते हैं पद, जो प्रत्ययान्त होते हैं. शब्द 'अव्युत्पन्न हो सकते हैं. प्रत्यय-रहित तथा एकशब्दात्मक होने के कारण वे 'मूल' (रूट ) कहे जाते हैं. ये 'मूल' ही 'धातु ' हैं, शेष प्रातिपदिक. "पाणिनि ने धातु और प्रत्यय को छोड़कर बाकी सब सार्थक शब्दों को प्रातिपदिक ( नामिनल स्टेम) की कोटि में रखा है. हम कह सकते हैं कि पाणिनि के अनुसार शब्दभेद ( पार्ट्स आफ स्पीच ) सिर्फ दो ही हैं : (1) प्रातिपदिक (2) धातु.” ___डा० राजगोपाल बताते हैं कि धातुबोधित 'व्यापार' के लिए प्रयुक्त होनेवाला प्राचीन पारिभाषिक शब्द है 'भाव' जिसे नैयायिकों ने 'कृति' नाम दिया और मीमांसकों ने इसके लिए 'कृति ' ऐवं 'भावना' शब्द का प्रयोग किया : “धातु से दो अंशों का बोध होता है - एक 'फल', दूसरा व्यापार, अर्थात् 'फलानुकूल व्यापार. ' प्रत्येक धातु से किसी फलविशेष के अनुकूल व्यापार-विशेष का बोध होता है. "* कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह धातु-लक्षण चिन्त्य लगता है. बेयर ने कहा है कि व्यापार की सूचना क्रिया देती है, धातु नहीं. प्रत्ययों से युक्त होकर क्रिया का रूप धारण करने के बाद ही धातु व्यापारसूचक हो सकती है. यह तो स्वयं स्पष्ट है कि व्यवहार में हमारे सामने क्रियाएँ आती हैं, धातुएँ नहीं. इसलिए धातुओं से व्यापार के बोध होने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता. परन्तु क्रिया और धातु के बीच विरोध है ही कहाँ ? 'क्रिया' प्रयुक्त रूप है. 'धातु' इसकी संकल्पना है, मूल है. अतः व्यापार क्रिया-मूल की संकल्पना में निहित नहीं है ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? पाणिनि ने धातुओं के वर्गीकरण में ध्वनि और संचरना को ही आधार बनाया हो और अर्थ को विश्लेषण का आधार माना ही न हो ऐसा नहीं है. 'पाणिनीय विश्लेषण-पद्धति के आधार' नामक लेख में डा. विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं: __" इसका यह अर्थ नहीं कि बीसवीं सदी के प्रारम्भिक संघटनावादी भाषा-शास्त्रियों की तरह वे अर्थ को विश्लेषण की परिधि से बाहर रखना चाहते थे, बल्कि ठीक उलटे, शब्दों के जिन अर्थो में प्रयोग वर्गीकृत किये जा सकते हैं, उन्होंने उनको वर्गीकृत करने का भी यत्न किया है, जैसे गत्यर्थक धातु, बुध्यर्थक धातु आदि का उल्लेख करके उन्होंने अर्थ की समानक्षेत्रता के आधार पर शब्दों का राशीकरण जगह-जगह किया है." शाकटायन ने कुछ शब्दों के एक से अधिक मूलों या प्रकृतियों का निर्देश किया है. यास्क ने शाकटायन के दो मत व्यक्त किये हैं : 'पदों में इतर पदार्थों का संस्कार' तथा 'पदों का द्विप्रकृति होना' 'द्विप्रकृति' के दो अर्थ हैं : दो धातुओं से बननेवाले शब्द तथा मूलतः एक किन्तु दो भिन्न मूलार्थों को वहन करनेवाली धातु. संस्कृत व्याकरण में धातुचर्चा केवल वर्गीकरण और विश्लेषण के रूप में ही नहीं मिलती, एक तात्त्विक भूमिका के साथ भी प्रस्तुत होती है. 'शब्द ' संज्ञा के अंतर्गत जो चिन्तन है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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