Book Title: Ganitsara Sangrah
Author(s): Mahaviracharya, A N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
Publisher: Jain Sanskriti Samrakshak Sangh
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पूर्वकालीन हो। पेशावर के समीप बक्षाली नामक ग्राम में भूमि के भीतर से एक भूर्ज पत्र पर लिखे हुए ग्रंथ के खंड सन् १८८१ में प्राप्त हुए। इनकी छानबीन से पता चला कि इनमें भिन्न, वर्गमूल, समान्तर
और गुणोत्तर श्रेढियां आदि गणित की प्रक्रियाओं का वर्णन है। कुछ विद्वान् इस ग्रंथ को तीसरी चौथी शती की रचना का अनुमान करते हैं और कुछ इसे बारहवीं शती के लगभग रखने के भी पक्ष में हैं। ( देखिये Bibhutibhusan Datta, The Bakhshali Mathematics, Bul. Cal. Math. Soc., XXI, 1 ( 1929 ), pp. 1-60 ).
प्रस्तुत सर्वांगपूर्ण गणित ग्रंथ के महत्त्व को समझ कर इसका सम्पादन प्रोफेसर रंगाचार्य ने अंग्रेजी अनुवाद सहित सन् १९१२ में किया था जिसका प्रकाशन मद्रास गवन्मेंट की ओर से हुआ था । इधर अनेक वर्षों से वह प्रकाशन अलभ्य है जिसके कारण प्राचीन गणित के विद्वानों व शोधकों को बड़ी असुविधा प्रतीत होती थी। इसी कारण यह आवश्यक समझा गया कि इस ग्रंथ का पुनः संशोधन, अनुवाद व प्रकाशन कराया जाय । यह कार्य गणित के प्राध्यापक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने अपने हाथ में लिया और उन्होंने अपने हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावना में विषय को सुस्पष्ट करने में बड़ा परिश्रम किया है जिसके लिये हम उनके बहुत कृतज्ञ हैं। प्रस्तुत ग्रंथमाला के अधिकारियों ने इस ग्रंथ को प्रकाशित करना सहर्ष स्वीकार किया इसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं । इस ग्रंथ के लिए प्रो० भूपाल बाळप्पा बागी ( धारवाड ) ने महत्त्वपूर्ण प्रास्ताविक लिखा है, जिसके लिए हम उनके आभारी हैं । अनेक सम्पादन व मुद्रण सम्बन्धी कठिनाइयों के कारण ग्रंथ के प्रकाशन में बहुत विलम्ब हुआ इसका हमें दुख है। विद्वानों से हमारी प्रार्थना है कि वे इस महत्त्वपूर्ण शास्त्र के सम्बन्ध में अपने अभिमत व सुझाव निस्संकोच भेजने की कृपा करें, जिससे विषय का उत्तरोत्तर परिमार्जन होता रहे।
ही. ला. जैन आ. ने. उपाध्ये प्रधान सम्पादक