Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books
________________
424
THE ESSENCE OF JAINA SCRIPTURES
पर हवं ते मात्रा व सहावो ति अप्पणो प्रणिवा । उबल तेहि कधं पच्चयं अपणो होदि ।।७।। गे परदो विण्णाणं तं तु परोक्न ति भणिदमदुसु । जदि केबलेण गावं हवि हि जीवेण पञ्चपलं ॥५॥ जावं सब समतं गाणमणस्पवित्व विमलं । रहिदं तु प्रोग्गहादिहिं मुहं ति एगतियं मणि ।।५।। ज केवलं ति गाणं से सोख परिणमंच सो चेव । खेदो तस्स ग भणिवो लम्हा घादी खयं जारा ॥६॥ गाणं अत्यंतगर्ग लोयालोएसु विस्यमा विट्टी । गगुमागदं सम्बं ९ पुष गं तु से लडं ॥१॥ जो सदहति सोक्स सुहेसु परमं ति बिगदादी । मुरिलग से प्रभव्या भव्वा वा तं पहिच्छति ॥१२॥ मनुप्रासुरामरिता पहिरा दियहि सहजेहि । प्रसहता तं दुक्खं रमति विसएमु रम्मसु ।।६३॥ जेसि बिसयेमु रखी तेसि दुक्म वियाग सम्भावं । नातं न हि सम्भावं वागारो गस्थि विसयत्वं ॥१४॥ पम्या इ8 वियसे फासेहि समस्सिदे सहायेण । परिणममाणो अप्पा सयमेव मुहंग हदि देहो ॥६॥ एगतेण हि बेहो सुहंग हिस्स फुरि सग्गे गा। विसमवसेण दु सोक्वं दक्खं वा हदि सयमादा ॥६६॥ तिमिरहरा जइ गिट्टी अणस्स बोबेण गरिम कायध्वं । तह सौरवं सयमावा विसया कि तस्थ कुवंति ॥६७।। सपमेव जहाविषयी तेजो उन्हो घ देवता गभसि । सिद्धो बि तहा गाणं मुहं च लोगे तहा देयो ॥६८-१॥
Page Navigation
1 ... 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508