Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books
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PRAKRIT TEXT
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अंग संग मुखो बोवि गणो सो गतवमस्यायो । एसोहि असम्भाबो गेव प्रभाषो ति विहिवो ॥१०॥ जो खलु बम्बसहावो परिणामो सो गुणो सबिसिष्टो । सदविदं सहाये रंब ति जिलोबदेतोयं ।।१०।। पन्थि पुरणो तियकोई पन्चामोतीहवा विणा ।
वसं पुरण भावो तम्हा स स सत्ता ॥११०॥ एवंविहं सहावे वं मत्वपम्जयत्यहि ।
सबसम्भावणिवा पावुभावं समा लमहि ॥१११॥ जोगे भवं भविस्सवि रोमरोबा परो भवीय पुरषो । कि इन्वतं पन्हषि स जहं बदि प्रसो कहं हदि ॥११२॥ मगुवो प हबपि देवो देवो गामानुसो व सिद्धो वा । एवं महोम्नमालो प्रणासभा कषं महवि ।।११३॥ रबदिएण सम्बं नवं तं पञ्चदिए पुणो। हदि य असमरापणं तबकाले तम्मयत्तानो ॥११४॥ अत्पित्तिय स्थितिय हवि भक्तमिति पुरखो । पम्बायेण दु केस वि तदुभयमबिटुमणं वा ॥११॥ एसो ति रास्थि कोई पत्षि किरिया सहावारणमता। करिया हि त्यि प्रफला धम्मो अदि शिकतो परमो ॥११॥ कम्मं पामसमा समावमय अपणो महास। अभिभूय एरं तिरियं मेरइयं वा मुरं कुवि ।।११७॥ परगारयतिरियसुरा जीवा सल शामकम्मणिवत्ता । ण हि ते सद्धसहावा परिणममाणा सकम्माणि ॥११।। जायद मेव रण नरसहि लगभंगलमुग्भवे न कोई। जो हि भवो सो बिलम्रो संभवविलय तिते गामा ||११६॥
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