Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books

Previous | Next

Page 469
________________ PRAKRIT TEXT 443 रागो पसस्थभूदो वल्पविसेसेण फलरि विवरीदं । पाणाभूमिगदागिह बीजाणिव सम्सकालम्हि ।।२५५॥ बहुमत्यविहिदवत्थुसु परिणयमन्मयलझागदागरदो।। ए लहवि अपुरणम्भावं भावं सारपगं लहदि ॥२५॥ प्रविविवपरमत्थेमु य विसयकसायाधिमे परिसेसु । बुई कर बदतं फलादि देवेसु मणुवेसु ॥२५७।। अदि ते विसयकसाया पावति परुविधा व सत्येसु । किह ते तप्पडिबडा पुरिसा रिसत्यारणा होति ॥२५॥ उपरखपायो पुरिसो समभावो पम्मिगेसु सम्बेसु । गुगसमिवियोवसेवी हवि स भागी सुमम्गस ॥२५॥ अमुभोवयोगरहिदा सब बधुत्ता सुहोवजुत्ता वा। खित्यारपंति लोगं तेसु पसत्वं लहरि भत्तो ।।२६०।। विट्ठा पगई बस् अभट्ठाणम्पपासकिरियाहि । बट्टा तदो गुणादो बिसेसिबम्बो ति सबदेसो ॥२६१॥ अग्भटाणं गहणं उवासणं पोसणं बसपकारं। मंडलिकरणं पणमं भरिणवमिह मुखाधिगाणं हि ॥२६२।। अभट्ट या समसा मुत्तस्यक्तिारबा उवासेया। संजमतवसापड्ढा परिणववरणीया हि समहि ॥२६॥ ण हदि समरणो ति मयो संजमतवसुत्तसंपत्तो वि । दि सहवि स प्रस्थे मारपधागे जिससावे ।।२६।। प्रववददि सासरणत्वं समर्श विद्वा पदोसदो जो हि । किरियासु खाणुमम्मावि हदि हिसो एदुचारितो ॥२६॥ गुगबोधिगस्स विलयं परिच्छगो जो विहोमि समतो ति । होज्वं गुणाघरो जरि सो होवि पतसंसारी ॥२६६॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508