Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books

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Page 468
________________ 442 THE ESSENCE OF JAINA SCRIPTURES सरगाणारचरिते तीस जुगवं समुहिबो जो दु । एयग्गगदो सि मदो सामणं तस्स परिपुष्णं ॥ २४२ ॥ मुज्झदि वा रज्जदि या दुस्सदि या दव्वमण्यणमासेज्ज । नदि समरणो प्रणाली बदि कम्मे हि विविहेहि ॥ २४३ ॥ प्रट्ठेसु जो ण मुज्झदि सा हि रज्जदि रोग बोसमुवयादि । समणो जदि सो रियई खबेदि कम्माणि विविहाणि ॥ २४४ ॥ समरगा सुद्ध वनुत्ता सुहोबत्ता य होंति समयन्हि । तेसु वि सुद्ध वजुता भरणासवा सासवा सेसा ॥ २४५ ॥ अरहंतादिसु भती बदलवा पचयणाभिजुरो । विज्जवि जवि सामले सा सुहकुत्ता भवे बरिया ||२४६ ॥ बंदल मंसणेह सम्भारमानुगमरणपश्विती । समरस समावयो न खिबिदा रामचरियम्हि ॥२४७॥ दंसरगरणानुवबेसो सिल्सम्हलं च पोसणं तेसि । खरिया हि सरागाणं निलिम्पूजोवदेसो य ॥ २४६ ॥ उबकुलवि जो विच्विं चातुव्वणस्स समरणसंघस्स । कार्याविराधरणरहिदं सो बि सरागप्पपानो से ॥ २४६ ॥ जबि कुर्गादि कायखेदं वेज्जावच्चत्वमुज्जदो समयो । व हवदि हर्षादि प्रगारी धम्मो सो सावयास से ।। २५० ।। जोन्हाणं गिरबेक्यं सागारपगारचरियताणं । अणुकंपयोवयारं कुब्बर लेवो यदि वि भ्रप्पो ॥ २५१ ॥ रोगेण वा छुपाए तहाए वा समेस वा रूढं । विट्ठा समरणं साहू परिवज्जडु श्रादसत्तीए ।। २५२ ।। बेाच्चरिणमितं गिलाणगुनबालबुड्ढसमरणारणं । लोगिगजरगसंभाला ग सिविदा वा सुहोवख़ुदा ।। २५३ ।। एसा पसत्यदा समरणारणं वा पुमो घरत्यागं । चरिया परेति भखिदा ताएव परं लहवि सोक्लं ।। २५४।।

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