Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books
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THE ESSENCE OF JAINA SCRIPTURES
जहि दसणेल सुंदा मुत्तम्भयरणेण चाबि संजुत्ता। घोरं चरविवरिप इरिथस्सल रिणज्जरा भगिना ॥२२॥ तम्हा तं परि लिगं तासि जिणेहि पिदि। कुलल्ववमोजुत्ता समसीमो तत्समाचारा ॥२२॥१०॥ बणेसु तीतु एक्को कल्लाजंगो तबोसहो वयसा । सुमुहो कुन्छारहिदो लिमगहणे हबदि जोग्गो ॥२२॥११॥ जो रयणतयणासो सो भंगो जिगवरोहि गिट्टिो। सेसं भंगेण पुले गो होदि सल्लेहनापरिहो ॥२२४/१२।। उबपरणं विण मग्गे सिमंजहजादस्वामिविभाग। गुरुवयणं पि य विमो सुस्तम्भयणं यणिविट्ठ ।।२२।। इह लोग गिरावेरखो अप्परिबको परम्मि लोम्हि । चुत्ताहारविहारो रहिदकसानो हवे समगो ॥२२६।। अस्स परोसरममप्पातं पितबो सप्पडिग्छगा समरगा । अयं भिक्खमणेससमय ते समषा पसाहारा ॥२२७/।। कोहाविएहि पाहि वि विकहाहि सहिहियागमहि । सममो हदि पमतो उबबुतो गेहगिहाहि ।।२२७/२।। केबलदेहो समनो मेहे ग मत्ति रहिवपरिकम्मो । भानुत्तो तं तबसा पनिगृहिय अपणो सति ॥२२॥ एक्कं बलु तं भरा अपरिपुष्पोबरं बहाल । चरण भिक्खेरण दिवा ण रसावेक्वं ए मधुमंसं ॥२२६/१।। परकम् प्र प्रामेसु प्रविपन्चमाणासु मंसपेसीसु । संतत्तियमुक्वायो सम्बादीसं णिगोदाएं ॥२२॥ जो पक्कमपक्कं वा पेसो मंसस्स खादि फासरि वा। सो किल णिहदि पि जीवाणमणेगकोडीसं ॥२२९/३॥ प्रापडिकुटुं पि पारितगयं गेव देयमण्णास । दत्ता भोत्तमनोग्गं भुत्तो वा होरि पबिछुट्टो ॥२२६/४॥
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