Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books

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Page 464
________________ 438 THE ESSENCE OF JAINA SCRIPTURES बेपत्तो समणो समचं वबहारिगं जिनमदम्हि । प्रासेन्यालोचिता उवरिष्टुं तेण कायव्यं ॥२१२॥ अधिवासे विचासे केवविहरणो भवीय सामन्ये । समणो विहरतु गिवं परिहरमाणो गिषाणि ॥२१३॥ चरविरिणबद्धोणिसमसो गाम्हि दंससमुहम्हि । पपदो मूलमुरणेसु य जो सो परिपुष्पसामणो ॥२१४।। भत्ते वा खमणे वा मावस वा पुरषो बिहारे वा। उधिहिया लिवर दिसमणम्हि विकम्हि ॥२१॥ अपपता वा चरिया सयणासठासचंकमादीसु । समएस्स सम्बकाले हिसा सा संतपि ति मदा ॥२१६॥ मरदुव बियप जोबो प्रयदराचारस्स गिन्धिदा हिंसा । पयवस्स परिष बंधो हिंसामेत्तेख समिबस्स ॥२१७/१।। उन्चालिम्हि पाय हरियासमिबस्स सिम्पमस्याए। माबाघेल कुलिगं मरिन सं जोगमासेम्म ।।२१७/२।। रणहितस्स तष्पिमित्तोबंधोमुहमोय रेसिदो समये । मुच्छा परिम्गहो चिप प्रभयपमालदो विट्ठो ॥२१७/३॥ प्रयदाचारोसमखोलासुविकायेसु बमकरोतिमदो। परवि व जदि पिच कमलं व जले पिकवलेवो ॥२१॥ हदिवस हबदिबंधो मम्हि जीवेष कायचेम्हि । बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा घडिया सव्वं ॥२१६॥ रण हि पिरवेक्सो चागो वहदि मिक्लुस्स प्रासयविसुद्धी । भविसुदस्स प चित्ते कह न कम्पक्समो विहिलो ।।२२०/१॥ गेहदि यसखा भाषपस्थिति भणिमिह सत्ते। अदि सो चत्तालंबो हवि कहं या प्रणारंभो ॥२२०२।।

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