Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books

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Page 470
________________ 444 THE ESSENCE OF JAINA SCRIPTURES अधिगगुणा सामग्णे बदति गुणावरहि किरिया । अवि ते मिच्छ वधुत्ता हवंति पानवारिसा ॥२७॥ गिन्धिरसुत्तत्थपदो समिदकसामोतबोधिगो चापि । लोगिगजलसंसागराचविचार संजदोपरि ।।२६८/१॥ तिसि भुक्ति वा दुहिक बलू गमो हि दुहिवमलो। परिवरित किवया सस्सेसा होरि अनुकंपा ॥२६॥२॥ लिगंभो पनाको बट्टवि अवि पहिगेहि कम्महि । सो लोगिगो ति भणिदो संघमतवसंपत्तो वि॥२६६।। सम्हा समं गणावो समणो समणं गुणेहि मा पहियं । प्रषिवसवु तम्हि खिचं इन्धविनविदुक्सपरिमोपलं ॥२०॥ प्रजधागहिवत्या एवं तन ति सिथिदा समये । मज्यतफलसमिदं भर्मति से तो परं कालं ॥२७॥ अवषाचारविनुत्तो बवत्वपदसिछिदो पसंसप्ता। मफले चिरं स जीववि वह सो संपुण्यसामलो ।।२७२॥ सम्म विविवपदत्वा चत्ता उहि बहित्यमम्मत्वं । विसयेसु पावसत्ता ते सुद्धा ति गिट्ठा ॥२७॥ सुखस्स प सामनं भलिवं सुखस्स ससं पाएं। सुखस्स व सिम्बाएं सो चिय सिद्धो समो तस्स ।।२७४।। सुरभादि साससमेयं साधारणगारबरियवा बुतो। जो सो पश्यणसारं सहरा कालेख पप्पोरि ॥२७॥ प्रति प्रवचनसार [पमनगमारो]

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