Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books

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Page 462
________________ 436 THE ESSENCE OF JAINA SCRIPTURES साहं होमि परेति च मे परे संति नाणमहक्को । दि भावि भाणे सो अपांगं हदि झा ॥१९॥ एवं गाणप्पाणं सगभूदं प्रतिनियमहत्थं । भुवमयसमणालयं मम्णेऽहं प्रप्पगं सुद्धं ॥१२॥ बेहा वादविसावा सहसा वाव समितमणा । गोवस्त ग संति धुवा धुवोवप्रोगप्पगो अप्पा ॥१६॥ जो एवं जाणित्ता मादि परं अप्पगं विसुरप्पा । सागारोऽसमारो औषि , सो मोहडागठि ।।१४।। जो बिहबमोहमंठी रागपदोसे अबीय सामणे । होज्वं समहसुक्खो सो सो प्रालयं लहहि ॥१६५।। बोलविबमोहकलुसो विसयविरतो मसो सिभिसा । समबदियो सहाये सो अप्पागं हवि भावा ॥१६॥ खिहायसवापिकम्मो पचास सम्वभावतन्याहू । गयंतगयो समसो मावि कम९ प्रसंदेहो ॥१७॥ सम्यागाविजुत्तो समतसम्बनसोक्सणारगड्ढो । भूदो पाखातीरो भावि प्रणखो परं सोवळ ॥१९८|| एवं जिणा जिरिणवा सिया मगं समुट्टिवा समणा । जावा समोत्थ तेति तरस य विवागमगस्त ॥१६॥ तम्हा तह जापिता अप्पागं जाणगं समावेग । परिवम्मामि मत्ति उद्वितो जिम्ममाप्तम्हि ॥२००/१।। दसणसंसुदागं समभणाणोवनोमवृत्ताम् । मन्बावापरदा पमो समो सिद्धसाहूर्ण ॥२००२॥

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