Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books

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Page 459
________________ PRAKRIT TEXT जबयोगी अदि हि सुहो पुष्णं जीवत्स संचय जादि । असुहो व सब पार्श्व तेसिमभावे न चयमत्थ ।। १५६ ।। पेच्छदि सिद्ध सहेव अणगारे । जो आणावि जिगिदे उपयोगो सो सुहो तस्स ॥१५७॥ नीवेतु सानुकंपो विसयकसायोगादो दुस्सु विबुच्चितयुगो खुदो । उम्पो उमगणपरो उपग्रोगो मस्स सो प्रसुहो ।। १५६ || असुहोबभोगरहियो सुहोवतो ग मलदवियम्हि । होन्यं मज्जत्थोऽहं खा सप्पगमध्यगं माए ॥१५६॥ साहं देहो र मरणो प वेब बारी स कारणं तेसि । कत्ता स्व ण कारविदा प्रणुमंता चैव कतीलं ॥ १६०॥ बेहो व मरणो वासी पोलर स्वप्पा ति शिहिड्डा । पोष्णलवणं हि पुलो पिठो परमाणुवध्यालं ।। १६१।। साहं योग्यसमो हा से मया पोग्ला या पिटं । लम्हा हि रस देहोऽहं कत्ता वा तस्स देहस्स ।। १६२ ॥ अपवेशी परमाणु पर्वसमेत्तो द सबमतो भो । सिद्धो वा सुक्सो वा दुपदेसाबित्तमनुभवति ॥ १६३ ॥ एगुत्तरमेगावी मनुस्स सिद्धत्तणं च सुस्वतं । परिणामादो भलिदं नाव असंततमनुभवदि ।। १६४ ।। सिद्धा मा सुक्खा वा पशुपरिखामा सभा व बिसमा वा । समयो दुहाधिगा अनि बक्झन्ति हि प्राविपरिहीया ।। १६५ ।। सिद्धतले बुनुलो चणसिद्धं स बंधमभवदि । क्लेव वा तिगुरियो अनुवभवि पंचगुणतो ॥१६६॥ पसादी लंबा सुरुमा वा बादरा ससंठाला । पुढविचलते वाऊ सगपरिलामेहि जायन्ते ।। १६७।। 433

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