Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books

Previous | Next

Page 454
________________ 428 THE ESSENCE OF JAINA SCRIPTURES सम्भावो हि सहावो पुणेहि सह पम्मएहि चित्तहिं । समरस सम्वकाल उप्पारम्बयधुवत्तेहि ॥६॥ इह विविहलबलगावं लवलगमेमं सदित्ति सम्वगयं । उक्सिदा खनु धम्म जिगवरवसहेण पगतं ।।७।। व सहावसिद्ध सदिति जिणा तस्वदो समक्खावा । सितष प्रागमदो णेच्छदि जो सो हि परसममो ।। सवष्टियं सहावे व मस्स जो हि परिणामो । प्रत्येसु सो महायो लिदिसंभवगाससंबद्धो ॥६॥ प भवो भंगविहीको भंगोवा सस्थि संभवकिहोगी। उम्पारोवि में भंगो ग विगा योग्रेग अरषेण ।।१०।। उप्पाइटुिरिभंगा वियते परजएसु पनाया। बव्वं हि संति गिय तम्हा द हदि सम्वं ॥१०॥ समवेर खलु रवं संभवठिदिगामणिबहि । एक्कम्मि व समये सम्हा वर्ष खतिवयं ॥१२॥ पादुम्भववि व अन्गो पन्जाभो पज्जो वर्वाद प्रन्यो। बध्वस्स तं पिवम् पेव पगढुंग उप्पण्यं ॥१०॥ परिणमदि सयं दवं गुणदो य गुणंतरं सहविसिष्टुं । तम्हा गुणपम्जाया भषिया पुरण वश्यमेव ति ॥१४॥ ण हववि अदि सह प्रसव हदि तं कहं दग्वं । हदि पुणो अगं वा तम्हा दब्वं सयं सत्ता ॥१०।। पविभत्तादेसत्तं पुषत्तमिति सासणं हि बीरस्स ।। मणतमत्ताभावो रथ तम्भवं होवि कथमेगं ॥१०६।। सदग्छ सच्च गुरखो सन्वय पनमोति विस्थारो। जो खलु तस्म प्रभावो सो सवभावो प्रतम्भावो ॥१०७।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508