Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books
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PRAKRIT TEXT
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जो मोहरागयोसे रिणहरणदि उवलम्भ जोण्हमुवदेसं । सो मन्वदक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ||८|| पाणप्पगमप्पागं परं च दवतरणाहिसंबद्ध । जादि दि रिपच्छयदो जो सो मोहम्बयं पुरवि ।।८।। तम्हा निरणमग्गादो गुणेहि पादं परं च दव्येसु । अभिगच्छदु गिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पयो प्रप्पा ॥१०॥ सत्तासंबद्ध सविसेस जो हि व सामणे । सद्दहदि ण सो समगो तत्तो धम्मो ण संभवदि ।।१।। जो बिहदमोहविट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्हि । प्रगटियो महप्पा धम्मो ति विसेसिदो समगो ॥२१॥ जो तं दिट्ठा तुट्ठो अम्भुट्टित्ता करेवि सक्कारं । बदंणरसमसणाविहि तत्तो धम्ममादिदि ।।६२/२॥ सेण परावतिरिच्या देवि वा माणुस गदि पप्पा । विहविस्सरियेहि सदा संपुण्समगोरहा होंति ॥६२।३।।
ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन
तम्हा सस्स णमाई किच्चा णिच्वं पितम्मरणा होज्ज । बोच्यामि संगहादो परमविरिणच्छयाधिगमं ।।१३।१।। प्रत्थो खानु बच्वमग्रो दश्वाणि गुणप्पगाणि भगिवाणि । तेहि पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥३२॥ जो पजयेसु गिरदा जोवा परसइग ति णिहिट्ठा। प्रादसहायम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदवा ॥१४॥ अपरिच्चत्तसहावेणुपाद ग्वयधुवत्तसंबद्ध । गुणवं च सपज्जायं जंत ववं ति बुच्चति ॥५॥
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