Book Title: Essence Of Jaina Scriptures
Author(s): Jagdish Prasad Jain
Publisher: Kaveri Books

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Page 451
________________ PRAKRIT TEXT 425 तेजो रिट्ठी गागं हो सो तहेब सिरियं । तिवणपहागरामं माहम्पं बस्स सो परिहो ॥६-२॥ तं गुगको अधिपदर प्रविधि मणवदेवपरिभाव । अपुणभावगिवर पणमामि पुगो पुगो सिद्ध ॥६८-३॥ देवादिगुरुपूजाम र दामम्मि वा मुसीलेषु । उपवासाविसु स्तो सुहोवमोगप्पमो मप्पा ॥६६॥ बुत्तो सुहेग मारा तिरियो वा मागतो व योगा। मूरो ताबदि कालं मादि सुहं इंदियं विविहं ॥७॥ सोमवं महाबसि गरिष सुराणं पि सिडमुबोसे । है बेहदण्टा रमति विसएसु रम्मेसु ॥७॥ परणारयतिरिपरा भगति जवि देहसंभवं बुक । किह सो महो व अनुहो उबमोगो हरि जीवाणे ॥७२॥ कुतिसारहवाकषरा सुहोवमोक्ष्यहि भोगेहि । देहावीणं विद्धि करति महिना वाभिरवा ॥७३॥ बदि संति हि पुष्पाणिय परिणामसमुग्भवाणि विविहागि । गणपति विसपतहं पोषागं देवता ।।४॥ से पुरा उहिष्ण तहा दुहिता सम्हाहि विसयसोक्सासि । इच्छति अनुभवति य पामरण दुस्ससंतसा ।।७।। सपरं बापासहिवं विच्छिणे बंधकारणं विलम। जं दियेहि ल ब लोखं दुस्समेव तहा ।।७।। स हि मण्णादि यो एवं स्थि विसेसो ति पुरसपावाणं । हिरि घोरमपारं संसारं मोहसंचालो ।।७।। एवं विविक्त्यो नो बम्बेसु रागमेवि सं था। उबमोविसुबो सो नदि बेहुम्भवं तु ॥७॥

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