Book Title: Dravya Vigyan
Author(s): Vidyutprabhashreejiji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 9
________________ बहुत से व्यक्तियों को यह बोध (ज्ञान) नहीं होता- “मैं किस दिशा से आया हूँ? मेरा पुनर्जन्म होगा या नहीं ? मैं कौन हूँ ? यहाँ से च्यव कर कहाँ जाऊँगा ?" मैं कौन हूँ ? यह प्रश्न स्व के संबंध में है। समाधान मिलता है - मैं 'आत्मा' हूँ। 'आत्मा' धर्म-दर्शन का मूल आधार है। आत्मा है तो सब कुछ है। इसी कारण जैनदर्शन ने आत्म-बोध पर गहरा जोर दिया। जो एक (आत्मा) को जानता है, वह सब कुछ जानता है। __पाश्चात्य दर्शन पुद्गल (matter) को ही महत्त्व देते हैं और उसी के इर्द-गिर्द जीवनशैली का निर्माण व विस्तार करते हैं, जबकि भारतीय दर्शन अशाश्वत पुद्गलों के पार शाश्वत चैतन्य के अनुभव की प्रेरणा देते हैं। इस सन्दर्भ में मैत्रेयी-याज्ञवल्क्य संवाद को दृष्टान्त के रूप में लिया जा सकता है मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य से कहा-“मैं उसे स्वीकार कर क्या करूँ जिसे पाकर मैं 'अमृत' नहीं बनती, जो अमृतत्व का साधन है, वही मुझे बताओ।"२ अमृतत्व अर्थात् मोक्ष भारतीय दर्शन-अध्यात्म की आधार शिला है। मोक्ष का अर्थ है : चैतन्य-बोध, और चैतन्य-बोध का एक मात्र कारण है- यथार्थ तत्त्व-विज्ञान । चैतन्य और अचैतन्य-इन दो पदार्थों में भेद विज्ञान ही यथार्थ तत्त्वबोध है। चेतन आत्मा स्वयं को पर से भिन्न समझकर सत्य को प्राप्त कर लेता है । पर में स्वबुद्धि और स्व में परबुद्धि के कारण ही संसार है। . जिसे संसार समझ में आ गया, वह सत्य समझ लेता है। संसार का तात्पर्य संसार की असारता, अस्थिरता और अशाश्वतता से है। जैसे ही संसार का वास्तविक स्वरूप समझ में आ जाता है वैसे ही जीव प्रयत्नोन्मुख होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। स्वरूप की दृष्टि से जैनदर्शन के अनुसार षड् द्रव्यों का विस्तार ही संसार है। प्रस्तुत ग्रन्थ में षड् द्रव्यों का सांगोपांग निरूपण हुआ है। . ' वैसे यह विषय इतना विस्तृत व गहरा है कि इस छोटे-से ग्रन्थ में समा नहीं सकता। तथापि यह निश्चित ही कहा जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रस्तुति का आधार विस्तार या संकोच नहीं, पर स्पष्टता और सरलता है। १. जे एगं जाणइ से सव्वे जाणइ। २. येनाहं नामृता स्यां किं ते कुर्याम् । यदेव भगवन् वेद तदेव मे ब्रूहि ।। - बृहदारण्यकोपनिषद् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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