Book Title: Doha Giti Kosa
Author(s): Sarahpad, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 133
________________ 116 चर्यागीति ३४ [दारिकपाद] [राग : वराडी] सुण्ण-करुणहिँ रे अभिण्ण-चारें काआ-वाआ-चित्तें । विलसइ दारिक्कु गअणह पारिम-कूले ॥ १ अलक्ख-लक्खणु चित्तु महासुहे । विलसइ दारिक्कु गअणह पारिम-कूले ॥ २ किं तउ मंतें किं तउ तंतें किं तउ झाण-वखाणे । अपइट्ठाण-महासुह-लीलएँ दुलक्ख-पर-णिव्वाणे ॥ ३ दुक्खइँ सुक्खइँ एक्कु करेवि भुंजिउ इंदिअ जाणइ । स-पुरु अवरु ण चेअइ दारिक्कु सअलु अणुत्तरु माणइ ॥ ४ राअ राअ राअ रे अवरे राएं मोहें रें बद्धा । लूई-पाअ-पसाएं दारिकें बारस-भुवणइँ लद्धा ॥ ५ (संस्कृत छाया) शून्य-करुणाभ्यां रे अभिन्न-चारे काया-वाचा-चित्तेन । विलसति दारिकः गगनस्य परतम-कूले ॥ १ अलक्ष्य लक्षणं चित्तं महासुखे । विलसति दारिकः गगनस्य परतम-कूले ॥ २ किं तव मंत्रेण किं तव तंत्रेण किं तव ध्यान-व्याख्यानेन । अप्रतिष्ठान-महासुख-लीलया दुर्लक्ष्य-पर-निर्वाणे ॥ ३ दुःखानि सुखानि एकीकृत्य [य:] भोक्तुं इन्द्रियाणि जानाति । स्व-परं अवरं न जानाति दारिक: सकलं अनुत्तरं भुनक्ति ॥ ४ रागः रागः रागः रे अपरेण रागेण मोहेन रे बद्धाः । लूई-पाद-प्रसादेन दारिकेन द्वादश भुवनानि लब्धानि ।। ५ [34] With unseparated Šunya and Karuņā, with his body, speech Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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