Book Title: Doha Giti Kosa
Author(s): Sarahpad, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 140
________________ 123 चर्यागीति ४१ (भुसुकुपाद / राउतपाद ) ( राग : कण्हु गुञ्जरी ) आइऍ अणुपण्णु एउ जगु रे भंतिऍ सो पडिहाइ । रज्जु - सप्पु देखिअ जु चक्क सच्चें किं वढ खाइ ॥ १ अकट जोइया रे मा करु हत्थालुहणी असे सहावें जइ जगु बुज्झसि तुट्टइ वासण तोरी ॥ २ मरु - मरिचिअ गंधव्व - णयरि दप्पण - पडिबिंबउँ जइसउँ । वाआवत्तें जो दिदु होअइ आप पत्थरु जइसउ ॥ ३ वंझा-सुअ जिवँ केलि करेइ खेलेइ बहुविह खेला । वालुअहें तेल्लें ससअहों सिंगें [जणि] आआसु फुलिल्ला ॥ ४ राउत्तु भणइ कटरि भुसुक्कु भणइ सअलु अइस - सहावा । जइ तुहुँ मूढउ अच्छइ भंति तु पुच्छहि सदगुरु - पाआ ॥ ५ [ संस्कृत छाया ] आदौ अनुत्पन्नं एतद् जगत् रे भ्रान्त्या तद् प्रतिभाति । रज्जू -‍ - सर्पं दृष्ट्वा य: चमत्करोति सत्यं किं मूर्ख खादति ॥ १ आश्चर्यं योगिन् रे मा कुरु हस्तामर्षणम् । ईदृशेन स्वभावेन यदि जगत् बुध्यसि त्रुट्यति वासना तव ॥ २ मरु - परिचिका गन्धर्व - नगरी दर्पण - प्रतिबिम्बं यादृशं । वातावर्तेन यद् दृढं भवति जलं प्रस्तरः यादृशः ॥ ३ वन्ध्या-सुतः यथा केलिं करोति क्रीडति बहुविधा: क्रीडाः । वालुकायाः तैलेन शशकस्य शृङ्गेन [ यथा ] आकाशं पुष्पितम् ॥४ राउत्तः भणति आश्चर्यं भुसुकुः भणति सकलं ईदृश - स्वभावम् । यदि त्वं मूढः अस्ति भ्रान्तिः तर्हि पृच्छ सद्गुरु- पादौ ॥ ५ Jain Education International [41] In the first place this world is uncreated. It appears/is perecived due to delusion. You fool, who is frightened by the rope-serpent, can it really bite? 1. Wonder! O Yogin, do not make the gesture of For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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