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(९)
दिगंबर जैन ।
दशलक्षण धर्म ।
१. उत्तम-क्षमा ।
सोरठा । जिनवर पद उर धार, धर्मतत्त्व वर्णन करूं । होते भवसे पार, जग-जन जिसको धारकर ॥१॥
पद्धड़ि। सद्दर्शन-ज्ञान-चरित्र, जान, तीनोंको उत्तम धर्म मान ।, साधक, इनके दश और धर्म, क्षम, मार्दव, मार्जव सत्य कर्म . ॥२॥ है औच व संयम, तप व. दान, आकिंचन, ब्रह्मचर्य प्रधान । यह दशधा धर्म कहा जिनेश, सेवत पावें जन सुख अशेष ॥ ३ ॥ जो चाहें शिवपुरका निवास, अरु रहते जगसे नित उदास । है त्याज्य उन्हें वह क्रोध कूर, जो, देता जगको दुःख . भूर: इस क्रोध दुष्टने किया नाश, जग-जीवोंको नित दिया त्रास । यह.पापी लेता.प्रेम छीन, कर एक हृदयके . तीन-तीन पितुसे करवाता पुत्र मिन्न, पति-पत्नी बंधन छिन्न-मिन्न । माई-माईमें रहे जंग, नहिं होने देता रोष संग
॥३॥ गुरु-शिष्य परस्पर करें रार, स्वामी-सेवक हैं खांय खार। मित्रों-मित्रों में खेंच तान, तलवार निकस्तो छोड़ म्यान ॥७॥ संयम-तप-तरुको क्रोध आग, है भस्म करे छिन मांहि लाग। ... दीपायन मुनि- मन लगी जाय, है दिया द्वारिकाको जलाय ॥८॥ क्रोधी-आत्मा हो प्रथम नष्ट, होवे न शत्रु चाहे विनष्ट । क्रोधाग्नि बुझाता नहीं नीर, कर शान्त सके नहिं बड़े वीर . ॥९॥ रहती मनके मन क्षमा बीच, झट भागता-फिरता क्रोध नीच । जो करता. इसपर सत्य-प्यार, देती मव-पारावार तार ॥१०॥
दुर्गति-पिशाचिनीको भगाय, गुण-गणकी करती नितसहाय । • आमी इसकी महिमा अपार, सब तत्वोंमें है यही सार ॥११॥