Book Title: Digambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 11
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 17
________________ ब (१५) . दिगंबर जैन । बिन मास्म-ज्ञानके जगत-जीव, अति क्लेषित रहते हैं सदीव । सुख-आशा-वश नित दुखद कर्म, करते बिन समझे आत्म-मर्म ॥१०॥ भ्रम-नाशक नित दो ज्ञान-दान, जिससे हो निन-पर की पिछान । छात्रों को नित दो शास्त्रदान, विद्यालय खोलो मिल महान् ॥ ११ ॥ संग्रह ग्रंथों का करो मित्र, ये रतन तुम्हारे हैं विचित्र । जो देते हैं नित ज्ञान-दान, वे होते बहु ज्ञानी महान ॥ १२ ॥ करो स्व-पर-कल्याण, देकर उत्तम दानको । - नहिं चाहो निज मान, फल नाशक जो दानका ॥९३ ॥ . उत्तम आकिंचन । ग्रहण किया जो देह, ममता उससे भी तजो। किसके गृहिणी, गेह, नित आकिंचन वृष भजो ॥२॥ यह जीव अतुल-सुख-वीर्यवान, जगदर्शक, निर्मल ज्ञानवान | होकर भी पृद्गल योग पाय, खो देता ब गुण, कर कषाय ॥९॥ ज्यों सिंह स्याटका संग पाय, निज गौरवको देता मुथय । स्यों निज परिणतिको भूल जीव, परमें रमता-फिरता सदीव नित धन संचय में रहे लग्न, या बनिता संगमें रहे मग्न । पितु, मात, मित्र, सुत, घर, दुकान, दुख पाता इनको आत्म मान ॥४॥ ज्यों शुष्क अस्थि कुक्कुर चबाय, निन रक्त पान में मुदित काय । त्यों बहि-आभ्यंतर संग भोग, मन मोद करें हैं मूर्ख लोग ॥५॥ घरे, खेत, धान्य, धन, दास, यान, पशु, शयन, कुष्य, दश, माण्ड हान । क्रोधादिक चतु, नव नो वष य, मिथ्यात्व सहित चतुदश नशाय ॥६॥ मुनि-पद धर. नितकर आत्म ध्यान, ज्ञानी करते सुख-सुधा पान । हितकर माने वैराग्य ज्ञान, जग वैभव गिनते तृण समान ॥७॥ शिवकोटि नृपति पाकर स्वज्ञान, शिव-मंदिर कोट किये प्रदान । आकिंचन वृष पाला अनुप, हो नग्न दिगम्बर सुख-स्वरूप चक्रोपद माना दुःखरूप, तन, हुए केवळी मात भूप। बालकपन में हो गनकुमार, पहुंचे परिग्रह तन शिवपझर ॥९॥ विविध संग परिहार, निज गुण नित विकसित करो। भोग चुके बहु बार, जगके सब ही भोग तुम ॥१०॥ १ स्त्रो । २ गीदड़ । २ हडो। ४ कुत्ता । ५ परिग्रह । ६ वस्त्रादि । ७ गनसुकुमाल स्वामी।

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