Book Title: Digambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 11
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 21
________________ (१५) दिगंबर जैन । मिथ्यात्वका लक्षण भेट उपर्युक्त बतलाये हुए मिथ्यात्वके भेदोंमें एकांत मिथ्यात्वी पदार्यको नित्य अनित्य ज्ञानस्वरूप और उनका स्वरूप। अज्ञान स्वरूप न मानकर सर्वथा एक ही तरहसे (लेखक-पं० चांदमल काला विशारद, पचार ) मानते हैं। विनय मिथ्यास्वके वशीभूत जीव एक मिथ्यात्वका प्रबल सामान्य इस पंचम कालमें धर्ममें स्थिर न रहकर सर्वदा इधर उधर भ्रमण प्रत्येक व्यक्तिके हृदय में खूबीसे अपना प्रमाव करता हुआ पागलवत मालप पड़ता है। संपूर्ण जमा रखा है। सम्यक्त्व इस मिथ्यात्वरूपी उग्र पदार्योके ज्ञाता रागद्वेषसे विनिर्मुक सर्वज्ञ वीतशत्रुसे डरकर कोसों दूर माग गया है । पूर्वा. राग हितोपदेशी इन तीनों गुणों सहित जिनेन्द्र चार्योने मिथ्यात्वका स्वरूप इस तरहसे निरूपण मगवानने जीव अजीवादि पदार्थोको तत्व बतकिया है कि जीव, अजीव, श्याश्रव, बंध, संवर, लाये हैं या अन्य तरहसे निरूपण किये हैं और निर्जरा, मोक्ष इन स्प्त पदार्थोंका यथार्थ रूपसे तत्व सात होते हैं या न्यूनाधिक होते हैं आदि निश्चय न होना । और यह मिथ्यात्व, अज्ञान, चिन्तवन करनेवाला संशय मिथ्यादृष्टि है। एकांत, विनय, संशय, विपरीत, गृहीत और पदार्थोंको समझनेपर और निश्चय होजानेपर मी निसर्ग मादि अनेक प्रकारसे विभक्त हैं । और अन्य तरहसे मानना विपरीत मिथ्यात्व है। यह संप्ताररूपी सागरमें परिभ्रमण करानेवाला है जिस तरह कुत्ता रोटीको छोड़कर मांसको त्रिमूढ़तारूप मिथ्यात्व महापापको उत्पन्न करने ग्रहण करता है उसी तरह गृहीत मिथ्यात्वको वाला और जीवोंके वधको धर्म कहता है । देव ! धारण करनेवाला मनुन कुहेतु कुदृष्टान्तोंसे परिमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, लोकमूढ़ता, इस तरह तीन भेदरूप हैं। बालाजी, भैरवजी, गणेशजी आदि । पूर्ण उपदेशोंके वशीभूत कुतस्पोंका तो श्रदान रागीद्वेषी देवोंकी मनोकामनार्य सेवाटहल आदर- 4 __ करता है पर वास्तविक तत्वों का श्रद्धान नहीं सस्कारादि करनेमें अपना अहोभाग्य समझना करता है। काले बस्त्रसे आच्छादित किया हुआ मनुष्य अंधकारमें रंगविरंगे चित्रोंको नहीं देख परिग्रह आरम्म और संसार सागर में परिभ्रमण सकता उसी तरह निसर्ग मिथ्यात्वी अज्ञानतासे करानेवाले पाखंडी साधु तपस्वियोंका भादर सदुपदेशों द्वारा अनेक बार समझाने पर भी सस्कार, सेवा टहळ व भक्ति पूजनादि करना वास्तविक तत्वोंका श्रद्धान नहीं करता है। गुरु मूढ़ता है। धर्म समझकर गंगा यमुनादि नदियों में तथा बंधुवर, जिस तरह मिट्टोसे मरी हुई तूंनरी में समुद्र में स्नान करना, काशी करोत खाना, बाल जल कदापि नहीं रह सकता है उसी तरह और पत्थर वगैरहका ढेर करना, पर्वतसे गिरना, परिपाकमें कटुक फल देनेवाले मिथ्यात्वरूपी अग्निमें जलना आदि अनुचित कार्योको करना रजोमलसे निन पुरुषोंकी आत्माएँ मलिन होगई लोकमूढ़ता है। हैं उनकी आत्मामें दया, शांति, ध्यान, तप, देवमूढ़ता है।

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