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दिगंबर जैन। गुजरात और बागड़ प्रांतमें विद्या विहीनः पशुः" यह कहावत चरितार्थ
एक वृहत् छात्राश्रम सहित होजाती है । तत्काल ही विचार तरंगें उठने संस्कृत विद्यालयकी आवश्यक्ता लगती हैं कि क्यों हमारे ये बालक ऐसे अज्ञानी
· रह गये। धन्य है उन बालकों! उनके गुरुवों और उसके लिये समस्त गुजराती तथा
संरक्षकोंको जिन्होंने ऐसी उत्तम विद्या पढ़ी वागडवासी श्रीमानोंसे अपील। और पढ़ाई, तथा धन्य है इन प्रांतोंके नेतावों व (लेखक:-५० दीपचंदजी वर्णी, दाहोद )
श्रीमानोंको जिन्होंने इस मुमुक्षु बालकोंकी महानुभावो ! माप लोगोंने तीर्थयात्रा करते
से निज्ञासा पूरी करनेके लिये ऐसी २ शिक्षा हुवे स्थाद्वाद विद्यालय काशी, सिद्धान्त विद्या
संस्थाएं व आश्रम खोलकर कितना बड़ा उपकार व्य मोरेना, महाविद्यालय व्यावर ( मथुराका )
समस्त भारतवर्ष मात्रकी जैन समाजमरका ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम जयपुर (हस्तिनापुरका),स०
किया है, कि जो मृतप्रायः यह जैन समाज मु० त० पाठशाबा सागर, दिगम्बर जैन शिक्षा
आन पुनः चैतन्यभावको प्रप्त होगई है। मंदिर जबलपुर, श्रावक वनिता विश्राम आरा,
___ अहहा! आज इन्हीं संस्थावोंके द्वारा पढ़ पढ़कर दि. जैन श्राविकाश्रम बम्बई, इंदौर,दिहली आदि।
" निकले हुवे छात्र धुरंधर विद्वानोंके रूपमें समस्त प्रसिद्ध २ शिक्षा संस्थावोंको तो अवश्य ही
मारत व्यापी होकर जैन धर्मका उद्योत कररहे देखा होगा, म्हां आपके अन्य प्रान्तीय माधी हैं, यह तब उपकार महासमा और प्रांतिक बालक बालिकाएं, माई बहिने, बह संख्या में समावों का ही है ? निःसन्देह सुर्यका उदय तो शिक्षालाभ ले रहे हैं, उनके मधुर कंठ उच्च-सरस्त भूमण्डल मरके लिये होता है, परंतु नेत्ररित धर्मसूत्र से कर्णप्रिय लगते हैं, अहा! हीन पुरुष उससे लाभ न उठाये, तो सुर्यका जब वे अल्प वयस्क विद्यार्थीगण मरी हुई तमामें क्या दोष ? यह उसीकी माग्यहीनता है। सिंह गर्जनाके साथ व्याख्यान देते हैं, तब हृद- वास्तव में हम लोगोंने आजतक न तो मोह यके चिरकाल से बंद कपाट खुलनाते हैं। उनको ( झुठे मोह ) वश अपने बालकोंको ही उक्त देखकर, उनके आलापको सुनकर प्रेमाश्रु निकल संस्थावों में विद्या मध्ययनार्थ कहीं भेजे, और न पड़ते हैं, हृदय गदगद हो उठता है, और एक- अपने यहां ही उनको पढ़ानेका कोई सुभीता वार इस अधेड़ अवस्थ.में पढ़नेका माव भीतर से किया. तब क्या बिना शान पर चढ़ाये ( बिना उमड़ उठना है "विद्या परं देवत्" ऐसा साक्ष ते विद्या पढ़ाये ) ही हीरा (ये होनहार पालक) होजाता है । परंतु हाद! जब हम अपने बालक मुकुट मणिकी (विद्वज्जन सम्मेलनोंकी) शोमाबालिकाओं की ओर दृष्टपात करते हैं, सारा को बढ़ासते हैं ? नहीं २ कदापि नहीं। आनन्द मोहवश निरानन्दरूप परिणत होनाता हाय ये बालक क्या कहेंगे " ॐ नमः सिद्धम्" है, मंत्रों के सन्मुख अंधकार छा जाता है, और "बाप पढ़े ना हम" यथा। इसमें हमारा ही