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Digamber Jain-Surat.
SHREE JAIN LIP
RARY
N112 SIRCHI STATE 19
नं ०
विषय
१. सम्पादकीय वक्तव्य
२. जैन समाचार संग्रह
Regd. No. B-744.
दिगंबर जैन
E XXX
बीर सं० २४४९ भाद्रपद । विक्रम १९७९.
संपादकमूलचंद किसनदास कापड़िया-सूरत ।
विषयानुक्रमणिका ।
....
३. छोटालाल गांधीनो छुटकारो ने मानपत्र ४. दशलक्षण धर्म ( ब ज्ञानानंदनीकृत कविता ) ५. दशलक्षण धर्म ( बा० सुमतिलाल जैन ).... ६. मिथ्यात्वका लक्षण भेद, व उनका स्वरूप.... ७. फालसा ( " वैद्य " )
८. बारह भावना व बारह मामा
९. गुजरात व वागड़ में सं० विद्यालयकी आवश्यकता व गुजरात बागड़के श्रीमानों से अपील
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पृष्ठ
१७
१९
२१
२२
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१०-११ जीवदया; गरमी में गरम चाय.....
२७-२८
१२. प्रातः कर्म विचार ( मोहनकाल मथुरदास काणीसा ) २९
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पेशगी वार्षिक मूल्य रु० १-१२-० पोस्टेज सहित ।
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वर्ष १६ व अंक ११
ई. सन् १९२३
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“ दिगम्बर जैन” के तीन उपहारग्रन्थकी
वी०पी० होरही हैं।
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दिगम्बर जैन (वष १४ व १५ वाँ) वीर सं० २४४७ व २४४८ * अर्थात् सं० १९७७-७८ का वार्षिक मूल्य करीब २ सभी ग्राहकोंसे वसूल आनेका है और इन दो वर्षों के तीन उपहार ग्रन्थ
१. श्रवक प्रतिक्रमण ( विधि, अर्थ सहित ) २. बलबोध जैनधर्म ( चतुर्थ भाग ) ३. जैन इतिहस प्रथम माग ( प्रथम १२ तीर्थंकरोंका चरित्र )
तैयार हैं और दो वर्षों का मूल्य वसूल करनेके लिये रु० ।-)की वी० पी० 8 से भेजे जारहे हैं । आशा है सम ग्राहक बी० पी० आते ही मनीऑर्डर चार्म ) सहित ३॥) देकर तुर्त छुड़ा लेवेंगे।
जब इन दो वर्षों के सभी अंक आपको मिल चुके हैं तब आपका प्रथम वर्तव्य है कि वी० पी० अवश्य छुड़ा लेवें । इन पीछले दो वर्षों का मूल्य देरसे वसूल करने में हमारा ही प्रमाद कारणरूप है ।
वर्तमान १६ ३ वर्षमे मी एक ग्रन्थ उपहार में दिया जायगा जो तैयार होने पर इस वका मृत्य भी वसूल किया जायगा । जिन २ ग्राहकोंका मूल्य भागया है है उनको ये ग्रन्थ बुकपेके टसे भेजे जायगे।
किसी ग्राहकको हिसाबमें कुछ भूल मालूम हो तो मी वे वी० पी० वापस 2 न करें । जो कुछ भूठ होगी, दूसरे वर्ष के मुख्यमें समन ली जायगी।
मैनेजर, दिगम्बर जैन-सूरत ।। ISISTRANSISTRITISASAR
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॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥
दिगंबर जैन, THE DIGAMBAR JAIN.
नाना कलाभिर्विविधश्च तत्त्वैः सत्योपदेशैस्सुगवेषणाभिः ।
संबोधयत्पत्रमिदं प्रवर्त्तताम्, दैगम्बर जैन समाज-मात्रम् ॥ ___ वर्ष १६ वाँ.|| वीर संवत् २४४९. भाद्रपद वि० सं० १९७९.
| अंक ११ वाँ.
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हो, मंदिरमें नहीं वर्तनी चाहिये । अर्थात् विलायती व मीलके बने कपड़े, जिसके तैयार कर. नेमें हजारों मन चर्बी वापरी जाती है ऐसे
कपड़े न वर्तकर हाथके सुतकी व हाथकी बुनी हमाग वार्षिक पुण्य पर्वाधिराज श्रीदशलाक्ष.
विशुद्ध खद्दरका ही उपयोग करना चाहिये तथा णी पर्व व्यतीत होरहा है
कीडोंको उबाल कर तैयार होनेवाले रेशमके दशलाक्षणी व शीघ्र ही चतुर्दशी अशुद्ध कपड़ेको तो मंदिर में अब स्थान न देना पर्व। आते ही दशलाक्षणी पर्व चाहिये । शास्त्रोंके बंधन, चंदोवा, तोरण आ
दिमें मखमल व रेशमी वस्त्रोंका उपयोग बहुत दश दिनों में अनंत चतुर्दशीका माहात्म्य विशेष है और इसीलिये सभी भाई बहिनें चतुर्दशीके पष्टन उपक
वेष्टन उपकरणादि बदल देने चाहिये । दिन विशेष धर्मध्यान करते हैं। सब दिनके ।
- अब इस चतुर्दशीको कई स्थानों पर कलह नहीं तो चतुर्दशीका अपवास तो बहुतसे भाई चतु
चतुर्दशी बना देते हैं अर्थात् इसदिन न्याति व बहिनें अवश्य करते ही हैं । और इस दिन .
___ मंदिर संबंधी अनेक झघड़े उपस्थित होकर बहुत सब भाई अपना२ व्यवहार बंद ही रखते हैं।
टंटा फिसाद होता है यह ठीक नहीं है । तथा कई स्थानों पर हमारे इस पर्वके कारण मदिरके हिसाब आदि पर्वके पहिले ही समन । व्यापार बन्द रहता है । अब इस चतर्दशीके लेने चाहिये जिससे पर्वमें झघडा होने का मौका
ही न आवे । दिन हमें अनेक प्रकारकेव्रत नियम लेने चाहिये, सुबहसे रात्रि तक सामायिक, प्रतिक्रमण, स्वा
___ हम गतांकमें लिख चुके हैं तो भी फिर ध्याय, पूजन, उपदेश आदिमें ही समय विताना
लिखते हैं कि हमें इसी चाहिये । हम 'अहिंसा परमो धर्मः'के माननेवाले तीर्थरक्षा फंड । पर्वमें तीर्थरक्षा फंडको हैं इसलिये हमारा प्रथम कर्तव्य है कि हमें एक
नहीं भूलना चाहिये । सी वस्तु कि जिसके बनने में हिंसा होती हमारे तीर्थोकी रक्षा ही हमारे धर्म यातनोंकी
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दिगंबर जैन
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( २ )
रक्षा है व विना द्रव्य रक्षा कैसे होसकती है इसलिये प्रति वर्ष दि० जैनीके प्रत्येक घर पीछे तीर्थरक्षाफंडका १) देना अतीव सुलभ है । यदि सभी भाई इसप्रकार चंदा दे देवें तो हजारों रु० की वार्षिक आमदनी तीर्थक्षेत्र कमेटीको हो जावे परंतु इसके लिये प्रयत्न करनेकी आव श्यक्ता है । प्रयत्न यही करना चाहिये कि मंदिरोंमें मंदिरोंके लागके रुपिये उगाहे जाते हैं उसी वक्त सबसे तीर्थरक्षा फंडका रुप्या भी ले लेना चाहिये अथवा किसी स्वयंसेवकों को खड़े होकर घर२ फिरकर ये रुपये इकट्ठे करके तीर्थ क्षेत्र कमेटी को भेज देने चाहिये ।
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हमारी दि० जैन समाज में ऐसी कई संस्थाएं हैं जिनका कार्य सुचारु दानका शुभ रूपसे चल रहा है परन्तु अवसर उसमें खर्च के लिये काफी स्थायी फंड नहीं है इससे उनका कार्य चालू सहायता से पूर्ण हो सकता है, ऐसी संस्थाओं में वार२ दान देना दि०जैन समाजका कर्तव्य है परन्तु इस दशलाक्षणी पर्व के उत्तम अवसर में तो ऐसा दान विशेषरूपसे होना चाहिये । इन संस्थाओंमें दान करनेसे चार दानोंका पुण्य मिलता है । हमारे दश धर्मोंमें उत्तम त्याग धर्मका माहात्म्य अपार है परन्तु इसके पालन के लिये हमें कुछ न कुछ त्याग (दान) इस दशलाक्षणी पर्व में अवश्य करना चाहिये । हम समझते हैं कि सभी स्थानोंपर चतुर्दशीके दिन एक दानका चंदा होना चाहिये
उसमें जितने रुपये नकद इकत्र हो हमारी
नीचे लिखी संस्थाओं को बांटकर तुर्त ही मनिओर्डर से भेज देने चाहिये । दान करने योग्य संस्थाओंके नाम इस प्रकार हैकुन्थलगिरि ब्रह्मचर्य आश्रम, स्या० महाविद्यालय काशी, ऋषभ ब्रह्मचर्य आश्रम जयपुर, महाविद्यालय व्यावर, श्राविकाश्रम बम्बई, उदेपुर पार्श्वनाथ विद्यालय, ब० आश्रम कारंजा, अनाथाश्रम देहली, अनाथाश्रम बड़नगर, औष घालय वड़नगर, सतर्क० जैन पाठशाला सागर, जैन शिक्षा मंदिर जबलपुर, जैन सिद्धांत विद्यालय मोरेना, भदादरांत विद्यालय भींड, उदासीनाश्रम कुंडलपुर आदि आदि ।
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स्वर्गीय दानवीर जैन कुलभूषण सेठ माणि
कचन्दजी करीब ढाई का लाख रुपये की अपनी जुबिलीबाग की मिलकियत दान कर गये हैं जिसकी आयका उत्तम सदुपयोग इसके ट्रस्टि यों द्वारा होरहा है। अभी इसके उत्साही मंत्री सेठ ठः कोरदास भगवानदास जहरीने प्रकट किया है कि दानवीर सेठजीके जुबेलीबाग ट्रस्ट फंड की आयसे सन् १९२३-२४ के लिये इस प्रकार सहायता देना मंजूर होगया है । कोलेजके २९ विद्यार्थियोंको कुल २९९ ) मासिक सहायता, रतलाम बोर्डिग १२९ ) मा. सिक, फुलकौर कन्याशाला सूरत २०) मासिक, बम्बई बोर्डिग २५) मासिक, कुरावद पाठशाला ५) मासिक, बनारस विद्यालय १६) मासिक, भींडर पाठशाला १०) मासिक, केशरियानी
सेठजी के सदुपयोग |
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___दिगंबर जैन । पाठशाला ७) मासिक, उदैपुर पाठशाला २५) महाराजा चंद्रगुप्त आदि जैन धर्मके माननेवाले मासिक तथा इसप्रकार मापकी हीराचंद गुमान- थे उनको जैनी नहीं प्रकट किया।
जी जैन बोर्डिगकी ओरसे १४ विद्यार्थियोंको इसमकार अनेक आक्षेप जैन धर्मपर किये हैं । १४५॥) मासिक स्कोलीप, हीराबाग धर्मशा- इसलिये हरएक स्थानपर सभा होकर प्रस्ताव लाके फंडसे १९ विद्यार्थियोंको रु. ३०६) करने चाहिये कि ये आक्षेप निर्मुल हैं और मासिककी सहायता दी जायगी। इस प्रकार लालाजीको इसकी नकल लाहौर भेजकर इतिदानवीर सेठनीकी ओरसे करीब ७००, ८०० हासमें सुधारा करनेकी सुचना करनी चाहिये । रु. मासिककी सहायता विद्यार्थियोंको दी जाती * है। दानका सच्चा उपयोग यही है। क्या राष्ट्रीय महासभामें कार्यकर्ताओंमें धारातभा अन्य करोडाधीश, ब लक्षाधीश सेठ माणिकचंद
प्रवेश अप्रवेशपर बड़ा जीके दानका अनुकरण करेंगे ?
देशमें फिर ऐक्या भारी अनैक्य होरहा था
जिसके निवटेरेके लिये प्रसिद्ध देशमक्त लाला लाजपतरायजीने स्कू. अभी देहलीमें खास महासभा होगई जिसमें
लोंमे चलाने के लिये ऐक्य होने का प्रास्ताव होगया है अर्थात् जिनको. लालाजीके इति. " भारतका इतिहास" धारासभामें जाना हो वे खुशीसे जा सकते है हासमें भूल। हिन्दी भाषामें बनाकर व मत भी दे सकेंगे। मौ० महमदअलीके
प्रकट किया है उसमें जैन असीम प्रयत्नसे ही यह तमझौता होगया है। धर्मपर अनेक प्रकारके आक्षेप लालाजीकी जैन इस महाप्तभामें सविनय भंग करनेकी व्यवस्थाके धर्मके इतिहासकी मनानकारीसे होगये हैं जिसका लिये एक कमेटीका निर्वाचन तथा सभी प्रकार के विरोध स्थान२ पर होरहा है । इस इतिहासमें ब्रिटिश मालका बहिष्कार करनेका भी प्रस्ताव लाला नीने लिखा है कि (१) जैनधर्मके नये बहुमतसे होगया है। इसीसे देशमें फिर नवीन संप्रदायकी बुनियाद २४वें तीर्थकरने डाली (२) जीवनका प्रचार होगा। देशके अनेक नेता बौद्धधर्म व जैनधर्मका सामान्य प्रभाव राजनीतिक जेलसे छूटे हैं व महात्मा गांधीजी भी शीघ्र ही अधःपातका कारण हुआ है । (३)जैनधर्मकी शि- छूटने की अनेक खबरें आरही हैं । बहुत करके क्षा बौद्धधर्मसे अधिकांश मिलती है (४) बौद्धधर्म महात्मानी दिसम्बर तक अवश्य छूट जायगे । आरम्भके आप्तपास ही जैन धर्मका प्रकाश हुआ। स्वीडनका १५ लाख रुपये का नोबल प्राइझ भी (५) जैन स्पष्टरूपसे ईश्वरके अस्तित्वका इन्कार महात्माजीको मिलने की संभावना प्रकट हुई है। करते हैं (६) जैन होना परले दरजेकी कायरता शांति और सुलहके सिरताज महात्मा गांधीहै । (७) मनुष्योंके साथ उनका वर्ताव बडा जीको जितना भी आदर मिले कम है। ही निर्दयी होता है । (८) बडे शूरवीर राजा
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તિicર વૈરા
શા. છોટાલાલ ગાંધીને છુટકારો મોજશોખ, એશઆરામ, અને જાહેરજલાને માનપત્રે.
લીને લાત મારી પ્રજાના હિતાર્થે, અને ભારત
માતની સેવા કાજે પે સંકટ વેઠવા હામ ભીડીને નાગપુરમાં રાષ્ટ્રીય વાવટાની રક્ષા માટે એક
જે અવર્ણનીય સેવા બજાવી છે, તેને અમો ખરા વર્ષની જેલ યાત્રાએ ગયેલા શેઠ છોટાલાલ ઘેલા
જીગરથી વધાવી લઈએ છીએ. ભાઈ ગાંધી (અંકલેશ્વર) બીજા બધા સ્વયંસેવકોને
રાષ્ટ્રીય ધ્વજના માન અને રક્ષણની હાકસરકારે છેડી દીધા તે પ્રમાણે એઓ પણ છુટા
લને આપે કુટુંબ પરિવાર અને ઘરબારનો વિચાર થવાથી એમનું અપૂર્વ સ્વાગત તા. ૬-૯-૩ ને
- નેવે મુકી જે સચોટ જવાબ વાળ્યો તેમાં અમો દિને અંકલેશ્વરની પ્રજા તરફથી થયું હતું. અને
તમારી નિઃસ્વાર્થતા, હિંમત અને દેશપ્રેમ નીરખી પ્રજા તરફથી એક માનપત્ર તેમજ અંકલેશ્વરના
શકીએ છીએ. વિસા મેવાડા દિ. જન ભાઈઓ તરફથી એક
આ વખતે આપે જે સેવા બજાવી છે, તેમાં માનપત્ર ખાદીપર છાપેલું અર્પણ કરવામાં આવ્યું
અમો જ્ઞાતિબંધુ તરીકે ગર્વ લઈએ છીએ કે, હતું. જનના માનપત્રની નકલ નીચે મુજબ છે.
આપે જન કોમને ઉજાળી છે. ભાઇશ્રી છોટાલાલ ગાંધીને જેલમાં છાપખાનાના
આપના ગુણેનું ગાન કરવા અમારામાં તાકાત્ત મશીનનું ચકકર ફેરવવાનું વગેરે અઘરું કામ
નથી, છતાંએ આપનું ચારિત્રજ તેમ કરવા અમને સેપવામાં આવ્યું હતું, તેથી એમનું શરીર કૃષ
પ્રેરે છે. થઈ ગયું છે, છતાં પણ નિડરપણે જેલનું સંકટ
અમો ઇચ્છીએ છીએ કે આ ધર્મયુદ્ધમાં વેઠી વિજય મેળવી રહેલા સ્વગૃહે આવી શક્યા આપ વિજયદેવીને વર, અને ભવિષ્યમાં પણ છે. એજ મુજબ આમોદ નિવાસી ઠાકોરલાલ
ધર્મ અને દેશને ખાતર પાછી પાની ન કરો, તેમજ ( હરજીવનદાસ ૫ણ છૂટી આવ્યા છે, જેમનું પણ
જૈન કામને દીપાવી તેનું ગૌરવ વધાસ્વા પ્રયત્ન આમોદમાં સારું સ્વાગત થયું હતું.
કરતા રહો; અને ભવિષ્યની પ્રજાને પાઠ પઢાવો માનપત્રની નકલ
કે નિઃસ્વાર્થ સેવાજ મેક્ષનો માર્ગ છે.ભારતમાતના મેઘેરાં સંતાન જૈનકુલદીપક, અંતમાં અમારી હાર્દિક અભિલાષા છે કે ધર્મબંધુ.
પરહિતના ઉત્તમ કાર્યો આદરવા સદૈવ આપને બળ. - શાછોટાલાલ ઘેલાભાઈ ગાંધી. બુદ્ધિ અને દીર્ધાયુષ્ય પ્રાપ્ત થાઓ એવું ઈચ્છી
જય જિનેન્દ્ર, આ અ૫ માનપત્ર આપને અપએ છીએ તે માન્યવર મહાશય,
સ્વીકારી અને કૃતકૃત્ય કરશે જી. અહિં પરમો ધર્મ એ જનના મહાન સિદ્ધાં
લી. અમો છીએતને અનુસરીને મહાત્મા ગાંધીજીએ આદરેલા યુદ્ધમાં જોડાઈ, અહિંસાત્મક રીતે વિજય પ્રાપ્ત
અંકલેશ્વરના વીસા મેવાડા દિગંબર જૈને. કરી શકાય છે, એ પાઠ આખી આલમને પઢા
તા૬-૯-૨૩ વવામાં જે કાંઈ તમોએ ભાગ ભજવ્યો છે, તેની જાત્રા --સંસ્કૃત વર્ગ શિક્ષા મા અમે ખરા અંતઃકરણથી પ્રશંસા કરીએ છીએ. ચેિ ઘરેથી છાત્રોંજી આવરાવતા હૈસં જેનોને હિંસાત્મક યુદ્ધની અરૂચિ હતી ખરી,
प्रवेशिकामें पढनेवालेको १०) मासिक छात्रवृति પણ આ યુદ્ધ તરફ અમને ધાર્મિક દ્રષ્ટિએ પણ માન છે; કેમકે તેમાં હિંસાને સહેજ પણ સ્થાન મળી . નૈકુમારસિંહુ જૈન મંત્રી, નૈન હાલૂા. નથી.
પાનીપત (વંગાર)
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जैन समाचारावलि ।
इन्दौर में- -रा० विश्वविद्यालयकी परीक्षा इसवार आगामी जनवरी में होगी । परीक्षार्थी एक आना भेजकर आवेदन पत्र मगालेवें । नवीन ब्रह्मचारी ब० हीरालालजीके उपदेशसे नांदगांव निवासी सेठ खुशालचंदजी पहाड़ने भाद्रपद सुदी २ को सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की है । आप एक वर्षसे पांचवी प्रतिमा धारण करके उदासीन वृत्तिसे घर पर रहकर धर्मध्यान करते थे और अब ब्रह्मचारी होगये हैं । उस दिन आपने ५०० ) औरंगाबाद पाठशालाको दिये तथा नांदगांव में दूसरी प्रतिमा धारण करनेवाली स्त्रीको १०० ) देना स्वीकार किया था ।
दक्षिण महारास्ट्र जैन सभा का वार्षिक अधिवेशन कार्तिक मासमें कोल्हापुर में होगा |
वर्धा में - जैन सेतवाल संगठन सभा स्थापित होकर उसका जल्सा आश्विन वदी ९-६ को होगा ।
दो आदिसागर मुनि - दक्षिण में विराजमान हैं । एकने नसलापुर ( बेलगांव ) में व दूसरेने बालते गांव (हातकलंगडा स्टेशन से २ मील) में चातुर्मास किया है ।
तिजारा जैन पाठशाला के लिये पं० पद्मावतीप्रसाद के प्रयत्न से २०८० ) का स्थायी फंड के लिये चंदा हो गया है ।
दिगंबर जैन ।
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जैनेंद्र लघु कौमुदी - पं० मनोहरलालजी शास्त्रीने तैयार की है और वे प्रकट करना चा हते हैं । शास्त्रीजी आजकल जैपुर ब्र० आश्र म हैं ।
मूडषिद्रि-की जैन सेठ पूरनसाहजी प्रतिवर्ष
संस्कृत पाठशालाको १००) व आरानि
वासी बाबू धरनेंद्रदासजी १२० ) प्रति वर्ष देते हैं। कर्नाटक में यह एक ही संस्कृत पाठशाला अच्छा कार्य कर रही है |
भारतवर्षीय दि० जैन परिषद्कि जिसकी स्थापना गत देहली महोत्सव के समय हुई थी उसका कार्य चालू हो गया है । ला० रतनलालजी एम० ए० सहायक मंत्री बिजनौर से सब प्रकारका पत्रव्यवहार हो सकता है । परिषदका 'वीर" पत्र भी शीघ्र ही प्रकट होने की तैयारी होरही है ।
खंडवा में सेठ गोपीकीसनजी देवकिसनजीके प्रयत्न व धन व्ययसे पोरवाड़ जातिके ९ गांवोंमें तडें थीं वे मिलगईं हैं ।
चंपापुर में - श्री वासुपूज्य तीर्थंकर के पंचकल्याण हुए थे जिनमें निर्वाण कल्याणक भादों सुदी १४ को हुआ था । इसी दिन यहां मेला व भागलपुर में रथयात्रा भी होती है ।
नागपुर - प्रांतिय खंडेलवाल सभाका वार्षिक अधिवेशन आगामी मगसिर वदी १-६-७ को रामटेकजीमें होगा ।
पानीपत में रक्षाबंधन के दिन ९२०) का दान मिला था जो काशी० स्या० विद्यालय, श्राविकाश्रम बम्बई आदि संस्थाओंको भेजा गया है ।
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दिगंबर जैन।
(१) स्वर्गीय दानवीर-सेठ माणिकचंदका महावीरजी-क्षेत्रके सुप्रबंधके लिये २१ चित्र जिस किसी बोर्डिंग, पाठशाला आदिमें सज्जनोंकी कमेटी नियुक्त हो गई है । कमेटी में चाहिये वे श्राविकाश्रम तारदेव बम्बईको शीघ्र १० मेम्बर तीर्थक्षेत्र कमेटीके, १० जयपुर पंचाही लिखे जिससे एक साथ विशेष कापियां यतके व १ भट्टारकजी नियत हुए है। . तैयार करवाकर भेजी जाय ।
बम्बई-में ऐलक पन्नालालजी दि. जैन वर्धा-दि. जैन बोर्डिंगका ११वां वार्षिः सरस्वति भवनका कार्य अच्छा चल रहा है । कोत्सव आश्विन वदी ६को सेठ लालचंदनी परवार समैये-भाइयों को परवार समानने छिंदवाड़ाके सभापतित्वमें होनेवाला है। अपने रीतिरिवाजोंके साथ सामिल करने का
औरंगाबाद पाठशालामें-श्रावण सुदी निश्चय किया है और इसके लिये समैया भाइ१५को पूजन होम आदि होकर सब छात्रोंने योंसे पत्रव्यवहार होरहा है। समैया परवार यज्ञोपवित् धारण किया था।
___ भाई यदि परवार भाइयोंके रीतिरस्म पालना जन्मदिनकी खुशीमें जल्सा-दान- स्वीकार करेंगे तो वे परवार समानमें अब वीर रा० ब० सेठ कल्याणमलजी इंदौरने अपने सामिल हो जायगे । यह उचित हो है । जन्मदिन भाद्रपद वदी ९ को अपनी तिलोक- वर्षगांठमें दान-ला० शिवचरणलाल जैन चंद जैन हाईस्कूलके छात्रों को पारितोषिक जसवंतनगरने अपने जन्मदिनकी खुशीमें १०१) वितरणका जलप्सा होकर स्टेटके प्रधानमंत्रीके संस्थाओं को दान भेना है। सभापतित्वमें किया था तब राज्यके अनेक अम्रितसर निवासी-बा० मुसद्दीलाल. पदाधिकारी व सर सेठ हुकमचंदनी आदि उप- जीने उदैपुर दि जैन विद्यालय के सभी छात्रों के स्थित हुए थे व छात्रोंने हिन्दी, अंग्रेजी संवाद लिये पढनेकी पुस्तकें भेंट भिजवा दी हैं । गायन तथा व्याख्यान किये थे । सेठनीकी तीन पुस्तकें मुफ्त-भूगोलभ्रमण भ्रांति तरफसे भी इन्दौर में पांच संस्थाएं सुचारु रूपसे नामक पुस्तकके तीन भाग पं० प्यारेलालजी चल रही है।
अलीगढ़ने तैयार करके प्रकट किये हैं वे विना छात्र चाहिये-सागरकी सतर्क० जैन मूल्य ला• जम्बूप्रसादजी प्रद्युम्न कमारजी रईस पाठशालाके लिये २५ छात्रों की आवश्यकता सहारनपुरको लिखनेसे मिलते हैं। है। जो हिंदीकी योग्यता रखते हों व जिन्हें उपकरण भी बनवा देते हैं- यदि ८ वर्षका अवकाश हो अर्जी भेनें । गणेशप्र- मंदिरोंके लिये सोना चांदीके छत्र चमर चौकी साद वर्णी जैन सं० पाठशाला, सागर। आदि व जरी कामके उपकरण बनाने हो तो वे
तीर्थक्षेत्र कमेटी की ओरसे तीर्थरक्षा तीर्थक्षेत्र कमेटी हीराबाग बम्बईकी ओरसे बना फंडका प्रति घर पीछे १) उगाहनेके लिये पांच देते हैं । कमेटी सिर्फ कमीशन लेकर यह कार्य प्रांतमें पांच प्रचारक भेजे गये हैं।
कर देती है।
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दिगंबर जैन । नसीराबाद-में ब्र० चांदमलजीके प्रय. सर सेठ हुकमचंदजीको म्हैसुरमें त्नसे सेठ लक्ष्मीचंदजीने आषाढ सुदी ५ को मानपत्र-श्रीमान सेठहुकमचंदजी जैनबद्रीकी उदासीनाश्रम अपने खर्चसे खोलदिया है व खुद यात्राको जाते हुए मैसुर गए थे तब वहांके भी इसी आश्रममें रहकर धर्मध्यान करते हैं। भाइयोंने जो मानपत्र दिया था वह यह हैઇડર-માં જેન યંગ મેન્સ એસોસીએશન
नकल मानपत्र । તરફથી સભા થઈને લાલા લજપતરાયજીએ પોતે ____आपकी दानशीलता धर्मबुद्धि सदाचार व्यापाબનાવેલા ભારત ઇતિહાસમાં જનધર્મ પર જે माक्षे५ ४ा छ, तना विशष वामां आव्यों स्नैपुण्य आदि गुणोंको सुनकर हम लोगोंको भने में पुर४ सुधारवाने भाट वासाने प्रार्थना बहुत दिनोंसे श्रीमानका दर्शन करनेकी उत्कंठा કરનારો ઠરાવ પાસ હતો.
थी। भाज आपने यहां पदार्पण किया है इसलिये ___ मामुल क्षेत्र-५२ यात्रिमानी मा माछी हमलोग आके दिनको सुदिन समझते हैं। आप હોવાથી આવક કરતાં ખરચ વધુ થાય છે. તેથી भुन म जारी भुनान पर्थनी टी माटे इंदोरमें महाविद्यालय, धर्मशाला, औषधालय, शुरामा अभए । २खा ने तेभने उदासीनाश्रम, कंचनबाई श्राविकाश्रम, वोडिंग मेरा प्र-avri 33 आभमाथा ३. ७७९नी आदि संस्थायें खोल करके जनसमाजको बडा મદદ મળી છે. ક્ષમાવણીના કાર્ડ-ગુજરાતી ભાષામાં બાર
उपकार किया है। और भी समाजोपयोगी माने से लेथे भात्री सुन
भ७, अनेक कार्योके लिये श्रीमानने कई लाख रुपया । महि२ सुखासाडी, भुने anाय खर्च किया है । जैन समाजमें आपसरीखे दानમળી શકે છે.
समां शु-नामन ने सेम या अमां शूर मिलना बहुत दुर्लभ है। हमको गर्व है छायो छ, तमा नये भुषण संधारे। ।। सेवा. कि आप से नररत्न हमारी जैन समाजमें है। " था५२ मा भनेक्षा पयमांसमोरनास आज हम हमारा सौभाग्य मानते हैं कि आप २४ छ।४। पछी शे तरी थुटाया डdi." सरीखे सधर्मी धर्मात्मा पुरुषका सत्कार करनेका તેને બદલે દરેક ભાઈયોએ શેઠ તરીકે ર૦ ગગहास की यह नभ्या बता' मेम पांय. मौका हमको मिला है । हमारी सेवा में जो कुछ
युनीसास पाय धी. त्रुटि होवे उसके लिये हम क्षमाप्रार्थी है। यह एक क्षत्रीने सप्त व्यसनका त्याग भी प्रार्थना करते है कि यहां पर हरसाल किया- ठाकुर रामपालसिंहजी (आगरा)को हमने .दशहरेमें होनेवाली मैसुर प्रांतीय दिगंबर जैन जंगल में बंदूक लिये शिकार खेलने जाते देखकर समाधिवेशनमें सभापतिस्थानको सुशोभित कर
आपको जंगल में एक घंटा समझाया और दूरसे नेके द्वारा और एकवार अवश्य आप दर्शन एक हिरनीके बच्चको भयसे कड़खडाते भागते देनेकी रुपा करें। दिखाकर हिंसाके त्यागको कहा और सप्त अंतमें हम श्री वीतराग भगवानसे प्रार्थना व्यसनका स्वरूप समझाया जिससे जमनानीमें करते हैं कि आप दीर्घायुरारोग्य भाग्यशाली खड़े होकर उसने यावजन्मको सप्तव्यसनका होकर संतुष्ट रहे । मैसुर दि. जैनसमान । त्याग किया-बाबूराम मंत्री जीवदया-अहारन ।
ता. २६-७-२३
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दिगंबर जैन ।
उपदेशकोंकी पोशाक-अन्य समाजकी हमारा विचार 'दिगम्बर जैन' का सचित्र खास भांति जैनसमाजकी तरफसे ता जीवदया सभा अंक प्रकट करनेका निश्चित रूपसे है इप्सलिये महारनकी तरफसे भी अहिंसा प्रचारार्थ उपदेशक हमारे सुज्ञ लेखकोंको हम अभीसे आमंत्रण भ्रमण करते हैं । जनतामें नुक्तेचीनीका परीक्षा- करते हैं कि वे हिंदी, संस्कृत, गुजराती, मराठी प्रधानगुण बढ़ता जाता है और कोट, बूट, फेल्ट व अंग्रेजी भाषा के उपयोगी लेख शीघ्र ही केप, सीपके बटन, उनका तथा विदेशी वस्त्र तैयार करके भेनें व कोई भाई अपकट प्राचीन मादि व्याख्यानदाताओंको नहीं पहिरने चाहिये तीर्थोके, संस्थाओंके ब प्रसिद्ध दानी धर्मात्माइससे जनसाधारण पर व्याख्यानका असर न ओंके चित्र व परिचय भेजेंगे तो उनको भी होकर उनकी मजाक उड़ाई जाती है। कई सहर्ष स्थान दिया जायगा। इस वर्ष भी करीब उपदेशक अंग्रेजी बाल रखा लेते हैं, श्रृंगार १००-१२५ पृष्ठका खास अंक निकालनेका करते हैं, रे, तू , छि, लानत, अफसोस, धिक्कार, हमारा इरादा है। भाशा है हमारे लेखकगण
आदि कड़े शब्दोंका जनता पर सभामें प्रयोग व ग्राहकगण हमें इस कार्यमें अवश्य सहायक करते हैं। इससे शिक्षित समानकी दृष्टिमें होंगे। उनकी ग्रामीणता प्रगट होती है इसलिये ऐसा आखका वैद्यक शर्तिया इलाज मुफ्तनहीं करना चाहिये। जैन समाज पार्मिक स. वैद्यभूषण कृष्णवदनी बाईकी मंडी "आगरा" माज है। कई व्याख्याता भंग पीते, विना छना आंख का हरप्रकारका इलाज विना फीस करते हैं। जलसे स्नान आदि करते, बानारका भोजन करते. कई बड़े अस्पताल और सिविल सर्जनके जवाब अष्टमी, चतुर्दशीको भी पान आदि हरी खाते, दिये हुए मरीजोंको आपने बिलकुल फायदा आलू, गाजर आदि कंदमूल, गोमी, क्थुआ, कर दिया है, उनके मकानपर दवा लेने और आदिका साग खाते हैं, जिससे भी जैन जनता तस्दी कराने जाता है उससे न फीस और न पर उनका प्रभाव नहीं पड़ता है। अतएव उप- दवाकी कीमत लेते हैं । मकान पर भी फीस देना देशकोंको सब प्रकारसे स्वदेशी वस्त्र-अपने भावश्यक नहीं हैं आप एक अच्छे क्षत्रीवंशके देशकी पोशाक पहिनते हुए, अभक्ष भक्षण
धनवान व्यक्ति हैं । परोपकारार्थ सच्चे दिलसे मादिसे सदा बचना चाहिये और जनसाधार
सेवा करते हैं। मुझे आंखके रोहों को एक अंग्रेज णसे अपने भीतर एक असाधारणता पैदा करना
भ० सर्जनने जवाब दे दिया था, आपने दो चाहिये जिससे अमीर गरीबाप्तवपर प्रभाव पडे। हप्तोंमें बिलकुल ठीककर दिया। बाबूराम मंत्री जीवदया अहारन ।
बाबूराम मंत्री जीवदया अहारन | सचित्र खास अंक-आगामी वीरनिर्वाण संवत २४२०के प्रारम्भमें भी प्रतिवर्षकी भांति
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(९)
दिगंबर जैन ।
दशलक्षण धर्म ।
१. उत्तम-क्षमा ।
सोरठा । जिनवर पद उर धार, धर्मतत्त्व वर्णन करूं । होते भवसे पार, जग-जन जिसको धारकर ॥१॥
पद्धड़ि। सद्दर्शन-ज्ञान-चरित्र, जान, तीनोंको उत्तम धर्म मान ।, साधक, इनके दश और धर्म, क्षम, मार्दव, मार्जव सत्य कर्म . ॥२॥ है औच व संयम, तप व. दान, आकिंचन, ब्रह्मचर्य प्रधान । यह दशधा धर्म कहा जिनेश, सेवत पावें जन सुख अशेष ॥ ३ ॥ जो चाहें शिवपुरका निवास, अरु रहते जगसे नित उदास । है त्याज्य उन्हें वह क्रोध कूर, जो, देता जगको दुःख . भूर: इस क्रोध दुष्टने किया नाश, जग-जीवोंको नित दिया त्रास । यह.पापी लेता.प्रेम छीन, कर एक हृदयके . तीन-तीन पितुसे करवाता पुत्र मिन्न, पति-पत्नी बंधन छिन्न-मिन्न । माई-माईमें रहे जंग, नहिं होने देता रोष संग
॥३॥ गुरु-शिष्य परस्पर करें रार, स्वामी-सेवक हैं खांय खार। मित्रों-मित्रों में खेंच तान, तलवार निकस्तो छोड़ म्यान ॥७॥ संयम-तप-तरुको क्रोध आग, है भस्म करे छिन मांहि लाग। ... दीपायन मुनि- मन लगी जाय, है दिया द्वारिकाको जलाय ॥८॥ क्रोधी-आत्मा हो प्रथम नष्ट, होवे न शत्रु चाहे विनष्ट । क्रोधाग्नि बुझाता नहीं नीर, कर शान्त सके नहिं बड़े वीर . ॥९॥ रहती मनके मन क्षमा बीच, झट भागता-फिरता क्रोध नीच । जो करता. इसपर सत्य-प्यार, देती मव-पारावार तार ॥१०॥
दुर्गति-पिशाचिनीको भगाय, गुण-गणकी करती नितसहाय । • आमी इसकी महिमा अपार, सब तत्वोंमें है यही सार ॥११॥
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NCP
दिगंबर जैन
(१०) रत्नत्रयकी जगमगे ज्योत, मनमांहि करे है जब उद्योत । मिथ्यात्व-धान्तका करे नाश, चिन्तामणिती जच रहे पास ॥१२॥ असमर्थ करें यदि आय रोप, उनके सन्तव्य तथापि दोष । शशिप्तम शीतल जिनका स्वमाव, वे धन्य नरोत्तम जगतराव ------॥ १३ ॥
जिनके शांति समीप, ऐसे जन इस लोकमें। होते मुक्ति महीप, जगत-पूज्य होकर सदा ॥ १४ ॥
२. उत्तम-मार्दव । मान नशे में भूल, गिने बडा जो आपको ।
अपने पथमें शूल, बोता अपने हाथ से ॥१॥ कुलसे हूं उन्नत, रूपवान, धन है मेरे, मैं बल-ध । । विद्यासे उन्नत तपोवान, हूं जाति-समुन्नत, सर्वरेमान ॥ २ ॥ भगमें मेरा ऐसा प्रभाव, दरवाजे आते रंक-राव । होता जिसपर मेरा प्रकोप, मानो उसका तुम हुआ लोप इस मांति नशेमें होय मस्त, निन-जीवन करता अप्रशस्त । चक्रीका मी नहिं रहा मान, कब कौन हुआ इसका न ध्यान यह अचेला चलती नहीं साय, जाते सब अंत पसार हाथ । इस भुपैर बहुते गये होय, वे धन्य, जु भाको गये खोय ॥५॥ कुल, जाति, परिग्रह, धन, व रूप, नहिं चेतनके हैं ये स्वरूप । पर द्रव्योंका अमिमान त्याग, नित बारम-गुणों में करो राग ॥६॥ त्रप्तकी थावरसे लही काय, तिसपर मी न मिळी आय । खोवो मत मान-कषाय मांहि, यह रत्न गया फिर मिले नाहि मानीसे सब ही रहे रुष्ट, मा, बाप व माई कहें दुष्ट । गुरु-नन मी करते नहीं प्यार, धिक्कार हैं सब बार-बार ॥८॥ इस कारण छोड़ो मान, मित्र ! चितपर मृदुताका करो चित्र । तिहुँ लोकमें मृदुता कही सार, कर देती मासे शीघ्र पार ॥९॥
करके मान कषाय, जो नहिं जीते जा सकें।
छूते आकर पाये मार्दव, धर्म प्रभावसे ॥ ॥१०॥ १ अन्धकार । १ क्रोध । ३ क्षमा करने योग्य । १ राना । ५ पृथ्वी । ६ मनुष्यपना ।
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दिगंबर जैन ।
॥१॥
॥२॥
॥३॥
(११)
३. उत्तम आर्जव । करके मायाचार, दुर्गति पाता जीव है।
होता भवसे पार, आर्जव धर्म प्रभावसे मन-वच-कायाको एक रूप, करे आजैन धर्म कहो अनूप । यह माया-शल्य चुभे सदीव, वा पालन मी वा रहित जीव माया टगनीकी प्रेम-कांत, करवाती तिर्यग्योनि बास । जहां मिलती भू, जल, अनल, काय, वायु व वनस्पतिकाय हाय लट, बिच्छू, शुगर, सर्प, श्वान, मक्खी व ततये भ्रार जान । बिल्ली, खर, बंदर, मैंस, गाय, कर माया इनमें पड़ें नाय अहं निस्य निरन्तर नये त्रास, हैं एक अन्यके बनें ग्रास ।
रिपर केहरी करता प्रहार, नित खाता बगुला म। मार नित सर्प नकुल का रहे बैर, बिल्ली से चूहों की न खा । चेतन होकर भी जड़समान, कुछ निन-परकी न रहे पिछान यह माया दुखदाई महान, क्यों करते होकर बुद्धिपान् ?। नर-भव नहीं मिलता बार-बार, छल-कपटमें व्यर्थ न करो स्वार .
नहिं होता विश्वास, कपटीका इस लोकमें। करते सब सन्मान, ऋजुताधारी जीवका
॥ ७॥ .
॥८॥.
४ उत्तम सत्य । पोलो बचन रसाल, नहिं इसमें हो खर्च कुछ। ..
कर्कश शब्द निकाल, जगमें होते निंद्य क्यों ॥१॥ इक देश, सकल वा सत्य पाल, अतिचार सत्यके पंच टाल । मिथ्या उपदेश व कूट लेख, नहीं कहो किसीकी बात देख ॥२॥ हरना तु धरोहर कहा पाप, पर भाशय प्रकट न करो आप। मय-लोम-क्रोधके वशी होय, नहिं मिथ्या भाषण करो कोय ॥३॥ निर्दोष कहो तुम सदा बैन, परको दुखदे, नहिं गिनो चैन । जो जिहा सत्य न कहे बात, मुखमें वह पन्नग सी दिखात
१ गघा । २ हाथी । ३ सिंह । ४ मछली । ५ सरल परिणामी। १ झूठी बात लिखना । ७ सर्प।
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दिगंबर जैन ।
(१२) पन्नग-विष नाशे है शरीर, लगता चेतनमें बचन तीर । पन्नग विषके हैं सो उऑय, बचनोंका विष उतरे न हाय ! माला, मणि, चन्दन, शशि, समान, या मृदु भाषाको सुधा जान । चिंतामणि वा वह कल्पबेल, है स्वर्ग-मार्ग या मोक्ष गैल चित चातकको वह स्वाति बंद, मन फटे हुएके लिये गूंद । हृदयानलको धनके समान, करवाती सबको सुधा-पान
सत्य-रसायन पाय, खाओ हृदका रोग तुम । नहिं कुछ अन्य उपाय, भव-सागरसे तिरनका ॥८॥
५. उत्तम शौच । धर चित नित संतोष, दुखद लोभको त्यागकर ।
शानादिक धन पोष, सब सुखका जो मूल है ॥१॥ यह लोम वानल हृदय बीच, जब जगती, करती कार्य नीच । व्रत, जप, तप, संयम, ज्ञान, दान, सब जलकर होते रन समान ॥२॥ धन-ईधनको है सतत पाय, लोमानल बढ़ती चली जाय । चक्रीपदके भी नहीं भोग, कर सकते उसको शांत शोक ! ॥३॥ इस लोमानकरों दग्ध जीव, अतिनिदित कार्य करें सदीब । छल कपट निरंतर लूट-मार, पर तनु काटें ले सड़ग धार जो पैदा करते मात-तात, लोभी उन तकका करें घात । जग-सम्पतिको बहे प्रत्येक, हिस्से में कण आता न एकशुचि चिन्मणि-मंदिर बना देख, ज्ञानामृत-बापी मरी, पेख । नित लोल-कलोल करें विवेक, नहिं बाधा भाती पास एक डुबकीको एक लगाय मित्र, देखो ! फिर आनन्द है विचित्र । जो डूब गये मझधार माहि, संसार में उनका पता नाहि
शौच-सुधाकर पान, लोभ-दाह मेटो दुखद।
शुद्धातमका ध्यान. करके पहुंचो शिवनगर ॥८॥ १ चंद्रमा । २ हृदयकी अग्नि । ३ मेघ ।
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दिगंबर जैन मालका
(१३) ६. उत्तम संयम।
पंच स्थावर काय, अरु त्रसका रक्षण करो।
सेवो न विषय कषाय, पञ्चेन्द्रिय-मन वश करो ॥१॥ करके प्रमाद अति क्रूर जीव, त्रस पावर घात करें सदीव । जो मृग-गण करते तृण अहार, उनपर भी क्रूर करें प्रहार ॥ २ ॥ माता सम नित जो दुग्ध दान, देती हैं गायें हर्ष मान । उनके तनुको भी कर विनष्ट हत्यारे खाते अति निकृष्ट । निज-तनमें सुईका विघात, है दुखदाई जब जग विख्यात । तब निन सम परके प्राण जान, कर रक्षा देओ अभय दान ॥४॥ अरि तनका मी न करो विनाश, तन द्वेष करो निजगुण विकाश । बहु-बी विघाती कार्य टाल, कर करुणा कहलाओ दयाल करि मत्स्य भ्रमर, मृग अरु पतंग, इक-इक इंद्रियवश नशे । नरका पांचों छेदें शरीर, नितचित्त चलाता अतुल तीर । इनको है संयम यम समान, घर निग्रह करलो रे ! सुनान । इनका निग्रह कर साधु-वीर, पहुंचे भव-पारावार-तीर
॥ ७ ॥ संयम पंच प्रकार, पंचम-गति कारण लखो। भवि-जन इसको धार, शास्वत आनंद रस चखो ॥८॥
॥१॥
७. नत्तम तप । लो इच्छाको रोक, विषयों में जो ले गिरे । तपको कर मुनि-लोग, नित आतम निर्मल करें मुनि गनतम मनको मत्त मान, उत्तमतप अंकुशसम पिछान । करिणी सम करणोंसे हटाय, शुम-ध्यान रूप-संकल लगाय व्रतिपरिसंख्यासे कर प्रहार, रस स्याग निरस देते अहार । अनशन तपवश आहार रोक, मन निग्रह करते साधु लोग भाकुलित देख किंचित् अहार, कर काय-क्लेश देते विचार ! निग्रह करते मी बार-बार, मुनि माघ सहशको करे स्वार
१ हथनी । २ इन्द्रियों । ३ तीसरा तप ।
॥२॥
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दिगंबर जैन |
WOO
( १४ )
चालिस - शेरों (सेरों) से करे युद्ध, वह मन - निग्रह करके बुद्ध । इससे ही मनके दमनहेत, गृह तज नित मुनि रहते सचेत
दंड, विनय वारे महान्, गुरु सेव करें नितप्रीतिमान । अभ्यास ज्ञानका करें निध्य, होते त्यागी जन दख अनित्य नित आत्म- ध्यान में रहे ठीन, जग लीलाकी कर छान-बीन । इस भांति सतत तपकर मुनीश, हो मुक्त विराजे जगत - शीश यो तप हितकर जान, करो सदा सब चतुर जन । दुर्लभ नरभव मान, व्यर्थ विसारो क्षण नहीं
*
*
॥ ५ ॥
॥ ६ ॥
॥ ७ ॥ .
11 2 11
८ उत्तम त्याग ।
त्याग कहो या दान देना उत्तम सर्वदा ।
॥ ४ ॥
11 9 11.
हो निज पर कल्याण, व बढ़े देथे वस्तु सदा ॥ १ ॥ इस भव वनमें नित भ्रमत जीव, दुख सहते रहते हैं अतीव । बहुव्याधिव्यथित तन दिन आहार, मय-मीत सदा अज्ञान घार बहुते बरसे पीडित सदीव, बहु प्लेग-रोगसे नशें जीव । बहुतों का 'क्षय' करता वित्रात, बहुतोंपर रहती कुपित 'बात' बहुतों को नाशे कुपित 'पित्त', बहुतों को 'कफ' करता अचित्त । बहु - उदर शूल से - तड़फड़ाय, मरजाते करते हाय ! हाय !! बहु का श्वास वश व्यथित - काय, निज जीवनको देते नशाय । औषधि दे करना रोग मुक्त, है प्राण-दानके तुल्य युक्त औषधि देना है मुख्य धर्म, बट तरुवत् फलता यह सुकर्म । जो औषधि देते वीर वीर, वे पाते हैं उत्तम - शरीर विन भन्न जगे जब उदर आग, बहु जन देते तच प्राण त्याग | जो क्षुधित देख दें अन्न दान, वे होते हैं सम्पति-निधान पट बिन जो रहते सतत तंग, पट देकर उनका ढको अंग । प्यासेको शीतल जल पिलाय, झट तृषा-अनलको दो बुझाय ज्योंके हरि पंजोंमें हिरन, मयभीत हुआ करता रुदन । अशरणको मयभीत पाय, झट-पट ही उरमें लो लगाय १ - दान देने योग्य वस्तु । २ खांसी ।
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
॥ ६ ॥
|| 19 ||
॥ ८ ॥
119 11
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ब
(१५)
. दिगंबर जैन । बिन मास्म-ज्ञानके जगत-जीव, अति क्लेषित रहते हैं सदीव । सुख-आशा-वश नित दुखद कर्म, करते बिन समझे आत्म-मर्म ॥१०॥ भ्रम-नाशक नित दो ज्ञान-दान, जिससे हो निन-पर की पिछान । छात्रों को नित दो शास्त्रदान, विद्यालय खोलो मिल महान् ॥ ११ ॥ संग्रह ग्रंथों का करो मित्र, ये रतन तुम्हारे हैं विचित्र । जो देते हैं नित ज्ञान-दान, वे होते बहु ज्ञानी महान ॥ १२ ॥
करो स्व-पर-कल्याण, देकर उत्तम दानको । - नहिं चाहो निज मान, फल नाशक जो दानका ॥९३ ॥
. उत्तम आकिंचन । ग्रहण किया जो देह, ममता उससे भी तजो।
किसके गृहिणी, गेह, नित आकिंचन वृष भजो ॥२॥ यह जीव अतुल-सुख-वीर्यवान, जगदर्शक, निर्मल ज्ञानवान | होकर भी पृद्गल योग पाय, खो देता ब गुण, कर कषाय ॥९॥ ज्यों सिंह स्याटका संग पाय, निज गौरवको देता मुथय । स्यों निज परिणतिको भूल जीव, परमें रमता-फिरता सदीव नित धन संचय में रहे लग्न, या बनिता संगमें रहे मग्न । पितु, मात, मित्र, सुत, घर, दुकान, दुख पाता इनको आत्म मान ॥४॥ ज्यों शुष्क अस्थि कुक्कुर चबाय, निन रक्त पान में मुदित काय । त्यों बहि-आभ्यंतर संग भोग, मन मोद करें हैं मूर्ख लोग ॥५॥ घरे, खेत, धान्य, धन, दास, यान, पशु, शयन, कुष्य, दश, माण्ड हान । क्रोधादिक चतु, नव नो वष य, मिथ्यात्व सहित चतुदश नशाय ॥६॥ मुनि-पद धर. नितकर आत्म ध्यान, ज्ञानी करते सुख-सुधा पान । हितकर माने वैराग्य ज्ञान, जग वैभव गिनते तृण समान ॥७॥ शिवकोटि नृपति पाकर स्वज्ञान, शिव-मंदिर कोट किये प्रदान । आकिंचन वृष पाला अनुप, हो नग्न दिगम्बर सुख-स्वरूप चक्रोपद माना दुःखरूप, तन, हुए केवळी मात भूप। बालकपन में हो गनकुमार, पहुंचे परिग्रह तन शिवपझर ॥९॥ विविध संग परिहार, निज गुण नित विकसित करो। भोग चुके बहु बार, जगके सब ही भोग तुम ॥१०॥
१ स्त्रो । २ गीदड़ । २ हडो। ४ कुत्ता । ५ परिग्रह । ६ वस्त्रादि । ७ गनसुकुमाल स्वामी।
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(११) .
१०. उत्तम-ब्रह्मचय । अतुल बली यह मार, व्यथित करे जगको सदा । इसका कर संहार, ब्रह्मचर्य पालन करो भव-बनमें हरि सम सुपट मार, निर्मय जगका करता शिकार । हरि, हर, ब्रह्मा, चक्री नरेश, घस्णेन्द्र, इन्द्र, बच्चा, खगेश -- ॥२॥ सबका मर्दितकर मान. मार, बहु व्यथित करे है बार-बार । निसने कॅपाया है। पहार, वह रावण इससे गया हार काणा, रुश, गंजा, गलित-पुच्छ, मदमाता स्मरवश श्वान तुच्छ । स्मरवरा गुरु लघु हों, क्षमी क्रुद्ध, मय, खाय शुर हों मूढ़ बुद्ध ॥४॥ अंगार सरीखो नारि जान, घृत कुंम सहश नर तन पिछान । न्यों अनल संगहो घृत विनष्ट, त्यों नारि संग हो मनुज- नष्ट हो मुर्छा, क्षय, भ्रम, ग्लानि, स्वेद, तो मी कामी नहिं गिने खेद । क्यों खान खुनाते पड़े चैन, त्यों कामी माने अमन-चैन नित मार बहै है पशु समान, फंस नारी चंगुल में नहान ।। फिर पाप-पोटका दीर्घ मार, ले गिरते जन दुर्गति मझार
॥ ७॥ मुनि ब्रह्मचर्य-तलवार घार, इस काम सुभटको सर्के मार । जग जयी कामसे ठान जंग, करे ब्रह्मचर्य ही मान मंग पुरुषार्थ भूर वृष मुकुट मान, यह ब्रह्मचर्य कोहेनुर जान । यह काम सर्पको गरूड़ रूप, जा तिरनेको नौका स्वरूप निकको औषधि दिव्य रूप, शिव-मंदिरकी सीढ़ो स्वरूप । मन-हस्तीको केहरि समान, विषयाशा-विषको मंत्र मान ॥१०॥ भ्रम-मोह-निशाको मानु जान, दुखनाशक सतसंगति समान । भव-कूप पड़ेको रज्जु रूप, मिथ्यामतिको जिन-11-स्वरूप ॥११॥
ख आत्म-रमण में मुख अशेष, अतिचार तनो पांचों हमेश । इस बिन नर-भव अति दुखद मान, पालो इसको नित सुखद जान ॥ १२ ॥
पाया नर-भव रत्न, "अमर" पुण्यके योगसे । कर अव ऐसा यत्न, जिससे भव बाधा मिटे ॥१३ ।।
स्वर्गीय ब्र. ज्ञानानन्दजी।। १ काम । २ सिंह । ३ धर्म । ४ इतिहास । ५ सिद्ध हीरा ।
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(१७)
दिगंबर जैन । . xxxkkX****XX** शौच कहा है)
*.. करना (व्यवहार में स्नान आदि करनेको भी * दशलक्षण धर्म। उत्तम सत्य-पच बोटना, झूठ न Wwxxxxxxxxxxx बोलना, कठोर वचन न कहना, दूसरोंके दुःख
देनेवाली बात न कहना, चुगली न करना, व्यर्थ उत्तम खम मद्दउ अज्जवं सच्चउ पुण सउच्च संजम सुतओ। बवाद न करना, किसीकी हंसीन करना, आदि । चाउ वि आकिंचण भवभय बंचणवभं चरू धम्म जु अखओ।
६ उत्तम संयम-अपनी इंद्रियों को वश में
जिस वस्तुका स्वभाव है वही उसका धर्म है । जैसे अग्निका
करना व विषयों की ओर प्रवृत्ति होनेसे रोकना,
। चलने-फिरने, स्वमाव गर्मी, जलका स्वभाव ठंडक है। इसी
उठने-बैठने, धरने-उठाने प्रकार जो आत्माको कर्म मलसे रहित करके
आदिमें किसी प्रकारका जीव घात न हो, ऐसे
परिणाम रखना। उसका वास्तविक स्वमाव ( अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनंतसुख ) प्राप्त करावे, वही
___७ उत्तम तप-तप २ प्रकारका है। आत्माका धर्म है।
(१) बाह्यतप-(१) लौकिक हानि-लाभकी श्री पाचार्य कहते हैं कि इस अक्षय के इच्छा न करके संयमकी वृद्धि के लिये उपवास दश भेद हैं जिनके पालन करनेसे कर्मोका नाश
करना (१) उक्त प्रयोजनकी सिद्धि व ध्यानकी व सच्चे सुख की प्राप्ति होती है।
एकाग्रताके लिये भूखसे कम खाना (३) मुनिका १ उत्तम क्षमा-दुष्टोंके दुर्वचन कहने,
भोजन के लिये जानेको ग्राम, घर आदिकका तिरस्कार करने, हंसी उड़ाने, मारने, दुःखी नियम करना, (४) इन्द्रय
र नियम करना, (४) इंद्रियों को दमन करनेके करने आदि पर भी अपने पजिम में लिये षटरसोंको या उनमेंसे किप्ती किसीको का न लाना । और कर्मों का फल नानकर समता
छोड़ते रहना (५) नहां ध्यान स्वाध्यायमें विघ्न के भावपूर्वक सहना ।
" कारण न हों, ऐसे एकान्त स्थानमें सोना बैठना, २ उत्तम मार्दव-सबके साथ नम्रतासे (६) शरीरसे ममता दूर करनेके लिये कायोत्सर्ग वर्तना और अपनी १ जाति, २ कुल, ३ सुंद- करना, अर्थात् गर्मी सर्दीकी परीपह सहा, नदी रता, ४ धन, ५ विद्या, ६ ज्ञान, ७ काम व-८ किनारे पहाड़ आदि पर तप करना ।
शूरवीरतापर किसी प्रकारका अमिमान न करना। (२) अतरङ्ग तप-(१) लगे हुए दोर्जेको । ३ उत्तम मार्जव-हृदयमें किसी प्रकारका दण्ड लेकर निर्मल करना, (२) सम्यग्चारित्रकी
कपट न रखना, मर-वचन-कायकी कुटिलताको तथा इनके धारकों की विनय करना, (३) मुनिदूर करना ।
आर्निका, श्रावक-श्राषिका, रोगी व वृद्ध उत्तम शौच-लोमका न होना, मन, मुनिकी सेवा व सहायता करना (४) शास्त्रोका बचन, कायकी शुद्धिके लिये संतोषका ग्रहण यथारीति अध्ययन करना, (१) शरीरसे ममत्व
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'दिगंबर जैन
COPANO
( १८ )
धर्मध्यान करना ।
छोड़ना, (६) आत्म चितवन ८ उत्तम त्याग - (१) अभय दान, (२) विद्य दान, (३) औषधिदान, (४) आहारदान, इन चार प्रकारके दानोंका देना, तथा सर्व प्रकारकी उपाधि व शरीर संबंधी दोषोंको छोड़ना । दान देनेसे अवगुणका समूह सहन ही नाश होता है । चारों ओर निर्मल कीर्ति फैलती है, शत्रु मी पैरोंपर पड़कर नमस्कार करता है और मोगभूमिके सुख मिलते हैं, परन्तु दान सदा सुपात्रको करना चाहिये ।
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श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, काशीमें दान करने से चारों प्रकारके दानका लाभ होता है, क्योंकि जो छात्रगण इस विद्यालय में पढ़ते हैं उनको आहारदान व विद्यादान तो नित प्रति ही होता है । जब छत्रगण बीमार पड़ते हैं, तो उनकी दवा मी की जाती है, अतएव दान की हुई रकमका एक भाग औषधि दानमें भी लगता है। इस विद्यालय द्वारा योग्यता प्राप्त किये विद्वान तथा धर्माध्यापक व छात्रगण यथाशक्ति अमय दानका भी प्रयत्न करते हैं । इस विद्यालय में ९० विदेशी छात्र विद्याध्ययन करते हैं जिनके मोजन, वस्त्र, पढ़ाई आदिवा १०००) मासिक खर्व है जो
समाजके उदार दातारोंकी नित प्रति दातृत्व पर ही निर्भर है । इस विद्यालयको स्थापित हुए १८ वर्ष हुए । अबतक १०० विद्वान इस विद्यालय द्वारा योग्यता प्राप्त करके प्रत्येक अंतमें अधिष्ठाता, धर्माध्यापक, उपदेशक - प्रचारक, सादिक, सुररेन्टेन्डेन्ट आदिका कार्य योग्यता पूर्वक कर रहे हैं ।
rage इस परमपवित्र पर्युषण पर्व में प्रत्येक स्थानके माइयों को इस विद्यालय में मी दान करना चाहिये । सालमें १६९ दिन होते हैं । (३९) रोजाना का खर्च है । इस प्रकार ३६५ दिनों के खर्च के लिये हर शहर व कसबा के भाइयों को यथाशक्ति अवश्य दान करना चाहिये । श्री संग्रह श्रावकाचारजी में कहा है:यत्सूनायोगतः पापं संचिनोति गृही धनम् । सं तत्प्रक्षालयत्येव पात्रादानाम्बुपूरतः ॥
अर्थात- गृहस्थ लोग पंच सूना (पीसना, खाँढ़ना, चूल्हा सुलगाना, पानी भरना, झाड़ना) के संबंध से जिस पाप समुहका संग्रह करते हैं, उसे पात्र दान रूप जल प्रवाहसे नियमसे घो डालते हैं ।
नोट - विशेष विवरण के लिये श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशीकी वार्षिक रिपोर्ट मंगाइये ।
(९) उत्तम अकिंचन्य- सर्व प्रकार की सांसारिक सामग्रियों ( २४ प्रकारकी परिग्रह) से
ममता घटाना व उनका त्याग करना ।
(१०) उत्तम ब्रह्मचर्य - विषय सेवन
अभाव और विषयोंसे अनुराग छोड़कर ब्रह्म (स्वत्मा) में तल्लीन होना, ज्ञानकी वृद्धके लिये गुरुकुलमें रहना व उनकी आज्ञा पालन करना, और विषय मोगादिक पुष्ट करनेवाले सर्व प्रकार के सुस्वाद भोजन, आभूषण, शृंगारादिक छोड़ना ।
इस दशलक्षण धर्मके सेवन करनेसे अजर अमर अविनाशी मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है।
इस लिये हो भव्यनन ! इसका नित्य पालन करो | ऐसा श्री आचार्यका आशीर्वाद है । सुमतिलाल जैन ।
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(१५)
दिगंबर जैन । मिथ्यात्वका लक्षण भेट उपर्युक्त बतलाये हुए मिथ्यात्वके भेदोंमें एकांत
मिथ्यात्वी पदार्यको नित्य अनित्य ज्ञानस्वरूप और उनका स्वरूप। अज्ञान स्वरूप न मानकर सर्वथा एक ही तरहसे (लेखक-पं० चांदमल काला विशारद, पचार ) मानते हैं। विनय मिथ्यास्वके वशीभूत जीव एक मिथ्यात्वका प्रबल सामान्य इस पंचम कालमें धर्ममें स्थिर न रहकर सर्वदा इधर उधर भ्रमण प्रत्येक व्यक्तिके हृदय में खूबीसे अपना प्रमाव करता हुआ पागलवत मालप पड़ता है। संपूर्ण जमा रखा है। सम्यक्त्व इस मिथ्यात्वरूपी उग्र पदार्योके ज्ञाता रागद्वेषसे विनिर्मुक सर्वज्ञ वीतशत्रुसे डरकर कोसों दूर माग गया है । पूर्वा. राग हितोपदेशी इन तीनों गुणों सहित जिनेन्द्र चार्योने मिथ्यात्वका स्वरूप इस तरहसे निरूपण मगवानने जीव अजीवादि पदार्थोको तत्व बतकिया है कि जीव, अजीव, श्याश्रव, बंध, संवर, लाये हैं या अन्य तरहसे निरूपण किये हैं और निर्जरा, मोक्ष इन स्प्त पदार्थोंका यथार्थ रूपसे तत्व सात होते हैं या न्यूनाधिक होते हैं आदि निश्चय न होना । और यह मिथ्यात्व, अज्ञान, चिन्तवन करनेवाला संशय मिथ्यादृष्टि है। एकांत, विनय, संशय, विपरीत, गृहीत और पदार्थोंको समझनेपर और निश्चय होजानेपर मी निसर्ग मादि अनेक प्रकारसे विभक्त हैं । और अन्य तरहसे मानना विपरीत मिथ्यात्व है। यह संप्ताररूपी सागरमें परिभ्रमण करानेवाला है
जिस तरह कुत्ता रोटीको छोड़कर मांसको त्रिमूढ़तारूप मिथ्यात्व महापापको उत्पन्न करने
ग्रहण करता है उसी तरह गृहीत मिथ्यात्वको वाला और जीवोंके वधको धर्म कहता है । देव
! धारण करनेवाला मनुन कुहेतु कुदृष्टान्तोंसे परिमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, लोकमूढ़ता, इस तरह तीन भेदरूप हैं। बालाजी, भैरवजी, गणेशजी आदि ।
पूर्ण उपदेशोंके वशीभूत कुतस्पोंका तो श्रदान रागीद्वेषी देवोंकी मनोकामनार्य सेवाटहल आदर- 4
__ करता है पर वास्तविक तत्वों का श्रद्धान नहीं सस्कारादि करनेमें अपना अहोभाग्य समझना करता है। काले बस्त्रसे आच्छादित किया हुआ
मनुष्य अंधकारमें रंगविरंगे चित्रोंको नहीं देख परिग्रह आरम्म और संसार सागर में परिभ्रमण सकता उसी तरह निसर्ग मिथ्यात्वी अज्ञानतासे करानेवाले पाखंडी साधु तपस्वियोंका भादर सदुपदेशों द्वारा अनेक बार समझाने पर भी सस्कार, सेवा टहळ व भक्ति पूजनादि करना वास्तविक तत्वोंका श्रद्धान नहीं करता है। गुरु मूढ़ता है।
धर्म समझकर गंगा यमुनादि नदियों में तथा बंधुवर, जिस तरह मिट्टोसे मरी हुई तूंनरी में समुद्र में स्नान करना, काशी करोत खाना, बाल जल कदापि नहीं रह सकता है उसी तरह और पत्थर वगैरहका ढेर करना, पर्वतसे गिरना, परिपाकमें कटुक फल देनेवाले मिथ्यात्वरूपी अग्निमें जलना आदि अनुचित कार्योको करना रजोमलसे निन पुरुषोंकी आत्माएँ मलिन होगई लोकमूढ़ता है।
हैं उनकी आत्मामें दया, शांति, ध्यान, तप,
देवमूढ़ता है।
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दिगंबर जैा।
(२०) व्रतादि समस्त सद्गुण प्रक्ट नहीं होते हैं। वसे जाम जन्ममें दुःख उठाने पड़ते हैं। विशेष जिस तरह उन्मत्त मनुष्य माको बहिन मार्याको तो क्या यह नीब छश प्रकारके क्षमा, मार्दव, माता, भ्राताको पिता, पिताको माई, माको माता, आर्जव, शौच सत्यादि पवित्र धर्मोंका मी आचमार्याको भार्या कह देता है किंतु वास्तव में ये रण करे, निर्दोष मिक्षावृत्तिका मी आचरण करे, सब क्या हैं इस बातका निश्चय नहीं कर सकता ब्रह्मचर्य व्रतका भी पालन करे, और माहारदान, उसी तरह पिध्यात्वके प्रबल प्रभावसे हेयको औषधदान, शास्त्रदान और अमदान इन चार उपादेय, सतको असत् समझता है परन्तु वास्त- प्रकारके दानोंको मी देता रहै, समक्ति अरविक बातको नहीं जानता है।
__ हंत देवकी उपासना करे, अनेक प्रकार के उद्धर्वलोक, मध्यलोक, पाताल लोक और भूत उपवास करे भादि धार्मिक कार्य कितने ही भविष्यत, वर्तमानकालमें मानसिक वाच.नक क्यों न करो लेकिन अबतक हमारे हृदयश्टल से शारिरिक अरु दुःख होते हैं वे संपूर्ण संसार- मिथ्यात्व दूर नहीं होगा तब तक निराबःध सागर में परिभ्रमण करते हुए जीवों को इसी सिद्धपदको प्राप्त नहीं कर सकते । इसलिए प्रिय मिथ्यात्वके महात्म्से होते हैं। हमारे असीम सज्जनो ! हम लोगों का परम कर्तव्य है कि उपकारक पूज्य पूर्वाचार्योंने इस तरह निरूपण हमारा अहित करनेवाले मिथ्यात्वको हृदयपटलसे किया है कि
दूर हटाकर जो हमारा सदैव हित चाहता है वरं विषं भुक्तम् सुक्षयक्षमं । उस सम्यक्त्वको अपने हृदय में स्थान देवें क्योंकि वरं बवं श्वापदनिषेवितं ॥ प्रातः स्मरणीय हमारे असीम उपकारक समन्तवरं कृतं वहि शिखाप्रवेशनं । मद्राचार्य स्वामीने अपने निर्माण किये हुए नरस्य मिथ्यात्वयुतं न जीवितं ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें यह कहा है कि:अर्थात् विष खा लेना अच्छा, श्वापद (कुत्ता) न सम्यक्त्वसमं किंचित्त्रैकाल्ये सिंह मालू आदि हिंसक प्राणियोंसे मरे हुए त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व. निर्जन बनमें रहना अच्छा है, अग्निमें गिरकर समं नान्यतनूभृताम् ॥ आत्म विसर्जन करदेना मी श्रेष्ठ है किन्तु इस अर्थात तीन काल और तीन जगतमें सम्यक्त्व. संसारमें उनकी अपेक्षा समिथ्यात्व जिंदा रहना के सहश जीवोंका कोई कल्याण करनेवाला नहीं श्रेष्ट नहीं है। इस संसार में भीवों का जितना है और मिथ्यात्वके समान अकल्याण करनेवाला भहित मिथ्यास्वरूपी परमशत्रु करता है उतना नहीं है। सिंह, सर्प, मदोन्मस हस्ती, रुष्ट राजा आदि कोई - भी नहीं कर सकते क्योंकि सिंहादि हिंसक पवित्र काश्मीरी केशरपशुओंके कारखानेसे तो एक ही भवमें दुःखोंका का भाव २॥) की तोला है। सामना करता है किन्तु मिथ्यात्वके प्रबल प्रमा- मैनेजर, दिगंबर जैन पुस्तकालय-सरत ।
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फालसा ।
( ११ )
GOO
G फालसा, परुषा, पेरुसा, फरुता, फेरुमा, फरुषा, फेरुषा । सं० परूषकः, गिरिपीलुः, नीलचर्म, नीलमण्डल इत्यादि । बं०- परुष, फसला, फल्पा शकरी । म० - पका । क०० - . वेट्टहा, दागली, दोगी, दोगलि । ते ० - पृटिकी, फुटिकी । ता० - तडावी । ते ० - चिट्टीदु । गु० -भ्रामण | म०-फाळल्या, प०-फालसा, प्रा० - फलुहे; फरुषा, शुकरी । सिन्ध-फारहो, फाल्सा, कोल० सिंधिन दामिन | सल्ता -जंगोष्ट । पुश्ती ०. पस्तओची, शिकारिम, एवाह । फा० - पालता, फाळसह, पालसह । अ० - फालसह । ले०Greeviaasiatica _ ० - Asiatic Gree
via I
यह सीलोन, अवध तथा भारतवर्ष के कितने ही प्रान्तोंकी वाटिकाओं में रोपण किया जाता है, किन्तु पूर्व बंगाल में कम दीख पड़ता है ।
। वसन्त
इसका वृक्ष मध्यम आकारका होता है। छाल भूरे रंग की होती है । पत्ते चार पांच इंच लम्बे, २- २॥ इंच चौड़े, गोलाकार, प्रायः तीन मागवाले, अनीदार और नुकीले होते हैं। ऋतु में पुराने पत्ते गिरकर नवीन पत्ते निकल आते हैं । प्रायः इसी समय यह वृक्ष फूलता फलता है । ४-५ फूलों के गुच्छे लगते हैं । फूल पीले रंगके होते हैं । फिर फळ आकर वे वैशाख, जेठ तक पकजाते हैं । फह मटर के समान, कच्ची भवस्था में हरे और पकने पर काले पड़जाते हैं
।
दिगंबर जन 1900
आ० म० गुणके दोष -- शीतवीर्य, मूत्र दोषको शोधन करनेवाला तथा वात, पित्त, प्रमेह, योनीदा र लिङ्गकी दाइको नष्ट करनेवाला है।
फालसेके कच्चे फल - खट्टे, कषैले, स्वादिष्ट, हल्के, गरम, रूखे, पित्तकारी, चरपरे तथा कफ और वातका नाश करनेवाले हैं ।
फालसे के पके फल- मधुर, शीतल, स्वा दिष्ट, रुचिकर, पाकके समय मधुर, विष्टम्भकारक, पुष्टिकारक, हृदयको हितकारी, तृप्तिजनक तथा वात, रक्त पित्त, दाह, तृषा, शोफ, पित्त, रुधिर विकार, ज्वर और क्षयरोगको हरने वाले हैं ।
यू० म० गुण दोष- तीसरे दर्जे में ठंडा और पहले में रूक्ष हृदय, आमाशय और गरम यकृतको बलप्रदान करनेवाला, पित्तज अतिसार, मन; हिचकी और तृषाको निवारण करनेवाला एवं ज्वरकी गरमी, वक्ष:स्थलकी दाह, आमाशय की दाह, मूत्रकी दाह और प्रमेहको दूर करनेवाला है । इसका स्वरस आमाशय के लिए बकारी हृदयकी व्याकुता और घड़कनको हरनेवाला और गरमीकी तृषाको शान्त करनेवाला है। तथा शीत प्रकृतिवाले मनुष्योंके लिए हानिकारक, अनीसुन और गुलकन्द है ।
प्रयोग - (१) - इसकी जड़, छाल, पत्ते और फल औषधिके काम में आते हैं । सलालोग इसकी जड़ की छालको सन्धिवातपर व्यवहार करते हैं । इसकी छालका काढा स्निग्वताजनक होता है । पत्ते फोड़े, फुन्सी, छाले आदिपर लगाये जाते हैं । फल- संकोचक शीतल और अग्निप्रदीपक होते हैं। इसका शर्बत रुचिकर और रक्तशोधक होता है । २प्रमेह और मूत्रकी दाहपर
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दिवंबर लेन ।
इसकी जड़ की छालको टुकड़े २ करके रात्रिमें जन्में मित्रो देवे, फिर प्रातःकाल उसको मलकर और
में छानकर पान करे तो विशेष लाभ होता है । (१) इसके शर्बतको पीनेसे दाह दूर होती है । (४) उदरशूल में - अजवायन के चूर्णको इसके गरम रसके साथ सेवन करनेसे विशेष उपकार होता है । (१) फोड़े को पकानेके लिए इसके पतों को पीसकर बांधना चाहिए। (६) औषधि योंकी चरपराहट पर इसकी छालका हिम पिलाते हैं । (७) गठिया में इसकी जड़ की छाल के क देको सेवन करने से आरोग्य लाभ होता है । (८) मूत्र पर इसकी १४ माशे जड़को पावमर पानी में रात्रि में मिजो देवे, और प्रातःकाल खूब मलकर वस्त्रमें छाले । इस प्रकारसे उसको एक या दो सप्ताह तक सेवन करने से मूत्रकृच्छ्र दूर होता है । (९) इसकी जड़ को पीसकर
(RR)
स्त्रीकी नामि, वस्ति और योनिपर लेप करनेसे मूढ़गर्म निकल आता है । (१०) बादीकी वमन, रुधिरविकार और उदरकी दुर्बलता पर काळे रंगके मीठे फाटसोंके रस में गुलाबजल और दुगुनी चीनी मिलाकर शर्बत तैयार करके उसको पान करने से शीघ्र काम होता है । (११) चार तोले छालको शीतल जल में पीसकर और मिश्री मिलाकर शर्बत बना लेवे । उस शर्बतको सेवन करने से श्वेतप्रदर नष्ट होता है । (१२) सुनाक पर पके फलोंको १॥ छटांक जल में मिजोकर १ घंटे बाद उनको अच्छी तरहसे मलकर दस्त्रमे छान लेवे । उसको मिश्री मिलाकर पीने से पेशाबकी, कमी चिनग, जलन आदि उपद्रव नष्ट होते हैं । फलके अभाव में इसकी छाल लेनी चाहिये । "वैद्य"
बारह भावना तथा बारह मासा ।
( श्री स्वर्गीय त्यागी शांतिदासजीकृत ) ॥ दोहा ॥
छूटै मिथ्या वासना, गावहु बारह मास । भावौ बारह भावना, शिवसुख पावन आस ॥
पिया जाते वृत रत्थ सजके विपन || सरस तीय सभ्झवे करके जतन ॥ टेक ॥
स्त्री वाचः - " तजै चीक अंडा ये जेठकी तपन, सधैं सह न पर्वत भी लागे लगन । लगे व्यार झरसी, जरावे वदन, चलो पुष्प सेज्या पै की शयन ॥
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(२३)
दिर और
पुरुष वाच:-रहे थिर न गिरिराज लागे लान, रहै थिर न काया, न जोवन, न धन ।
अधिर पुष्प सेज्या अथिर जग सदन, अथिर प्रीति भी चील त्यामे कळन ॥१॥ पि० स्त्री०-लगा पाद बरसातका धागमन, किलो करें पंक्षीगन मिल चमन ।
विदेशी समन भी सिघारे सदन, रहें नारि बरसाथ अट्टालिकन ॥ पुरुष०-करें वास क्या ऊंन अट्टालिकन, छः खंडों बचे नाहि चौरासी खन ।
गै काल व्यारी गिरै तरु चमन । धरम, देव, गुरु शास्त्र विनको शरण ॥२॥ पि. स्त्री०-ए सावनकी यामिन, सुहानी पवन, हिलोरें घटा मेघ लागे झरन ।
झुलाऊँ हिंडोला तुम्हें मन सनन, मरूँ राग तो संग यही भाव पन ॥ पुरुष-हिंडोला नगत यह अनादि निधा, लगी दोय डोरी जे घावोगमन ।
चलें झुकंवा चहुँगति लगै विध पवन, मरूँ राग 'सोह, स्वयं ना विपन ॥२॥ पि. स्त्री०-न भादोंमें पक्षी भी छांडै सदन, रहें नारी नरं दोनों हिलमिळ मैंगनं । - अंधेरी मुकै घोर कर बरसे बन, हुए एक जल थल करो किम गमन ॥ पुरुष-अकेला करे चारों गतिमें गमन, सके रोक अंधेरी न जल थल न धन । ___अकेला सहै दुःख जन्मन मरन, चलें सा तन धन न परमन सुनन ॥ ॥ पि. स्त्री-चलै शीत पावस ग्रीषम पवन, जनावे सुखासौज तीनों रितुन ।
जड़ी नारी बहु फूल द्भुत फवन, मिल क्षीर जक सम तिया मीत मन ॥ पुरुष-मिलै क्षोर जक तेल तिल रंग पतन, त्यों ही तनमें चेतन सुगंत्री सुमन ।
सवै द्रव्य पारी निराळे गुनन, धरै पस्नै न्यारी लखो जिन श्रुतन ॥ ५ ॥ पि. ॥ स्त्री-खिले चंद्र कातिक है निर्मक गगन, सुगंधे मलें सब सनावे सदन । ___मनावे दिवाली भरें मोद मन, करें धूत क्रीड़ा रमावौ रमन ॥ पुरुष-नप्ताव सुगुन धन फसाव दुखन, मलिन चूत कोणा करें ना सुमन ।
सुगंधैं करें सब अपावन यह तन, अशुचि जान यासे न राचे रमन ॥ ६ ॥ पि० ॥ स्त्री-लगा शीत अगहन परन को गहन, खुले प्रेमके द्वार चारों तन ।
घनी प्रीति धारे सबै ज्यों बप्तन, लगावे धनी स्यों घनासे लगन ॥ पुरुष०-खु दर सदाचार ऊपर त्रिपन, मिथ्यात्योग अवृत कषायाश्रवन ।
करें कर्म इन द्वारसे आक्रमन, छैटै डोरी ममता छुटै नग भ्रमन ॥ ७ ॥ पि० ॥
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दिगंबर जैन ।
(२४)
स्त्री०-परै पुष पाला लगै तन गरन, रहै संग वाला, बसै सेन मन ।
महारेन हेमवंतमें पोगो जन, रहैं डारि परदा सवै निन दरन ॥ पुरुष ०-समित गुप्ति वृषाचार परिसा भान, लगा डाट संवर जे आश्रय दस्न ।
__ रहे रैन हेमंतमें इस जतन, मिटें शीत भोगनकी सब कड करन ॥ ८ ॥ पि० ॥ स्त्री०-रै माघ सरदी पै दर्दी सनन, स्खें दिल न गरदी वेहरदी दुःखन । ।
रंगे रंग जर्दी जगावें मदन, फिरै सुर पीछे बप्तताममन । पुरुष-करें ध्यान वृद्धिः बसंती पचन, धरै भाव शुद्धिः न व्यापै मदन । ___नमें सर्व ऋद्धि हरै सब दुःखन, जे अमिपाक निर्भर है सिद्धो करन ॥ ९ ॥ पि० ॥ स्त्री-मिलें फागमें शत्रू अरु मीतगन, यही लोक रीति उल्लंघे कवन ।
तजो हट विपन, धारो अनुरागमन, चलो फाग खेखन सजन रंगमवन ॥ पुरुष०-उतंग राजू चौदा विडोबत बलन, स्वयं सिद्ध कर्सा न हर्ता कान ।
भरी डेढ़ मुरज दिख षट रङ्गल, फिरै जीव हुरिहाणे चौदा मुवन ॥ १०॥ पि० ॥ स्त्री-तजो चेत चिंता मेरे मनहरन, मिल मोग भागम विषय सुखकरन ।
तनै गोदका क्यों उदर लालसर, कहां सुख नरम सुरग त्रिदशन ॥ पुरुष-यह सच है मनुष भव मिलन अति कठिन, सुकुछ थक कठिन बोधदुर्लभ मिलन ।
करै आप तन मन वचन अनुमान, यही ऊँचपन देवसे नर सुखन ॥११॥ पि० ॥ स्त्री-त्रषारोग बाढ़े लगे ताप तन, विकल हो मम याद आवे वचन ।
छः दर्शनमें मावै सुकीजे ग्रहण, करो उग्र व्रत दान प्राचरण ॥ पुरुष ०-जे वेशाख दर्शन छ: भावे न मन, विषय पोषक हिंसक परिग्रह धरण ।
दरब तत्व दर्शाय शिवमग करन, अहिंसामई एक दिन धर्म गन ॥ ११ ॥ पि० ।। स्त्री-करौ लोंदमें न्याय मेरा सनन, चळे छोड़ किस पर हो वरुणा धरण ।
पराधीन परजाय हम दुःख भान । करें आस किसकी बतावो जतन ॥ पुरुष०-शुभाशुभ स4 व्या अपने रसन, मिलें सुख इनको करै जब दहन ।
नरम आस कर पालो सद् आचरण, यो समझाय मन सुख चले फिर विपन ॥१३॥ सोरठा-नारी कात विचार, परवस मव भव दुःख भरे । निज चप्त कियो न काज, विकलप तजि व्रत आवरे ॥ .
कामताप्रसाद जैन अलीगंज ।
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(२५)
दिगंबर जैन। गुजरात और बागड़ प्रांतमें विद्या विहीनः पशुः" यह कहावत चरितार्थ
एक वृहत् छात्राश्रम सहित होजाती है । तत्काल ही विचार तरंगें उठने संस्कृत विद्यालयकी आवश्यक्ता लगती हैं कि क्यों हमारे ये बालक ऐसे अज्ञानी
· रह गये। धन्य है उन बालकों! उनके गुरुवों और उसके लिये समस्त गुजराती तथा
संरक्षकोंको जिन्होंने ऐसी उत्तम विद्या पढ़ी वागडवासी श्रीमानोंसे अपील। और पढ़ाई, तथा धन्य है इन प्रांतोंके नेतावों व (लेखक:-५० दीपचंदजी वर्णी, दाहोद )
श्रीमानोंको जिन्होंने इस मुमुक्षु बालकोंकी महानुभावो ! माप लोगोंने तीर्थयात्रा करते
से निज्ञासा पूरी करनेके लिये ऐसी २ शिक्षा हुवे स्थाद्वाद विद्यालय काशी, सिद्धान्त विद्या
संस्थाएं व आश्रम खोलकर कितना बड़ा उपकार व्य मोरेना, महाविद्यालय व्यावर ( मथुराका )
समस्त भारतवर्ष मात्रकी जैन समाजमरका ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम जयपुर (हस्तिनापुरका),स०
किया है, कि जो मृतप्रायः यह जैन समाज मु० त० पाठशाबा सागर, दिगम्बर जैन शिक्षा
आन पुनः चैतन्यभावको प्रप्त होगई है। मंदिर जबलपुर, श्रावक वनिता विश्राम आरा,
___ अहहा! आज इन्हीं संस्थावोंके द्वारा पढ़ पढ़कर दि. जैन श्राविकाश्रम बम्बई, इंदौर,दिहली आदि।
" निकले हुवे छात्र धुरंधर विद्वानोंके रूपमें समस्त प्रसिद्ध २ शिक्षा संस्थावोंको तो अवश्य ही
मारत व्यापी होकर जैन धर्मका उद्योत कररहे देखा होगा, म्हां आपके अन्य प्रान्तीय माधी हैं, यह तब उपकार महासमा और प्रांतिक बालक बालिकाएं, माई बहिने, बह संख्या में समावों का ही है ? निःसन्देह सुर्यका उदय तो शिक्षालाभ ले रहे हैं, उनके मधुर कंठ उच्च-सरस्त भूमण्डल मरके लिये होता है, परंतु नेत्ररित धर्मसूत्र से कर्णप्रिय लगते हैं, अहा! हीन पुरुष उससे लाभ न उठाये, तो सुर्यका जब वे अल्प वयस्क विद्यार्थीगण मरी हुई तमामें क्या दोष ? यह उसीकी माग्यहीनता है। सिंह गर्जनाके साथ व्याख्यान देते हैं, तब हृद- वास्तव में हम लोगोंने आजतक न तो मोह यके चिरकाल से बंद कपाट खुलनाते हैं। उनको ( झुठे मोह ) वश अपने बालकोंको ही उक्त देखकर, उनके आलापको सुनकर प्रेमाश्रु निकल संस्थावों में विद्या मध्ययनार्थ कहीं भेजे, और न पड़ते हैं, हृदय गदगद हो उठता है, और एक- अपने यहां ही उनको पढ़ानेका कोई सुभीता वार इस अधेड़ अवस्थ.में पढ़नेका माव भीतर से किया. तब क्या बिना शान पर चढ़ाये ( बिना उमड़ उठना है "विद्या परं देवत्" ऐसा साक्ष ते विद्या पढ़ाये ) ही हीरा (ये होनहार पालक) होजाता है । परंतु हाद! जब हम अपने बालक मुकुट मणिकी (विद्वज्जन सम्मेलनोंकी) शोमाबालिकाओं की ओर दृष्टपात करते हैं, सारा को बढ़ासते हैं ? नहीं २ कदापि नहीं। आनन्द मोहवश निरानन्दरूप परिणत होनाता हाय ये बालक क्या कहेंगे " ॐ नमः सिद्धम्" है, मंत्रों के सन्मुख अंधकार छा जाता है, और "बाप पढ़े ना हम" यथा। इसमें हमारा ही
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दिगंबर जैन।
(२१) : अपराध है। जब ये व्यापार सीझते हैं, पैसा भवनत दशाके सुधारनेका प्रयत्न करेंगे । कमाते हैं, खातावही, कोर्ट कचहरी करते हैं, भाइयों ! जो प्रांत वाम्बर अर्थात् श्रेष्ट३चनवाला वो इनको विद्या क्यों नहीं आती। परंतु आवे कहाता था वह भान बागड़ (जंगली) नामको कहांसे । हमने तो इनको पढ़ने ही नहीं दिया। प्राप्त हो गया, जहां पं० लक्ष्मीचन्द जैसे गोम. क्या हम (नधन हैं जो विद्यालय नहीं खोल दृसारके ज्ञाता, पांडव पुराणके कर्ता आदि महान सक्ते हैं ? नहीं । यदि हम निधन होते, तो ये नर हो गये, आन वहां सुत्र वांचनेवाले नहीं बड़े २ केशरियाजी, मीलोड़ा, गिरनार, पावागढ़, रहे, हाय आन यहां बढ़ई, माट, मोनक लोग, तारंगा, सेजा, डूंगरपुर, तागवाड़ा, कलिंजरा गादीपर बैठकर शास्त्र सुनानेवाले हमारे गुरु बन आदिक विशाल मंदिर कैसे बन जाते ? याब मी बैठे, ये चौमाता करते हैं, पछेड़ी मेंट आदि चढ़ प्रतिवर्ष प्रतिष्ठाएं पूनाएं ( तेराद्वीप, समोसरण, बाते है। जहां देवसेन, हर्षकीर्ति, चतुर्मती जैसे नंदीश्वर, वारसौ चौतीस आदि ) विधान होते हैं आडंबर धारी भेषी लोग मुनि आर्यिका बन बैठे जिनमें तथा व्याहके व मौसरके नीमनोंमें, वर हैं, जहां अय प्रांतका साधारण अक्षराभ्वासी व कन्याके पितावों तिजोरियां भरनेमें, भेषी मनुष्य पंडितजी महारान कहाता है, जहां अष्ट पाखंडी धर्मके नामके धुतारोंके पेट भरने में, द्रव्यकी नित्य पूजा कराने के लिये भी किसी कितना द्रव्य व्यय होता है ? फिर हमारे माई नामधारी पंडितको बुलाना पड़ता है इत्यादि बम्बई, इंदौर, शोलापुर, वीमापुर, पंढरपुर, आक- दशा हो गई, प्रमु रक्षा करो ! मैंने इन प्रांतों में लन, वाही, फलटण, बारामती, परंडा. पूना भ्रमण करके इसकी अवस्थाका पूर्ण परिचय भादि दक्षिणके भनेक स्थानों में व्यापारार्थ चले किया है और इन प्रांतस्थ भाइयोंसे मी मुझे गये हैं, वे प्रायः सभी अपने उद्योग और पुण्यके परिचय है, इनकी वर्तमान अवनत स्थिति लेख. फलोंका सुखसे उपभोग कर रहे हैं, और जो नी में नहीं आसक्ती है । इस लिये ही अपने वहांसे आकर अपने देशके प्रेमश यहां तारंगा- हृदयस्थ मागेको दुछेक शब्दों में दिखा कर यह दिमें प्रतिष्ठाएं करते हैं, ईडा, बड़ाली, केशरि- अपील करता हूं कि आप लोग इस पतित याजीकी बंदनार्थ सदा आते हैं तो क्या विना अवस्थासे शीघ्र उन्नतावस्थाको प्रप्त करने के ही द्रव्यके यह सब कार्य होजाता है ? नहीं२ लिये उक्त दोनों प्रांतों के हितार्थ किसी केन्द्र द्रव्य तो है और माव भी है। परन्तु परिणः स्थानमें एक बृहत “शिक्षासदन" छात्रामन अभी इस ओर नहीं हवा है वस केवल वास सहित खोल देवे तो घ्रि ही यह त्रुटि इतनी ही बात है । हम समझते हैं कि “गई दूर हो जावे, और अन्य प्रांतोंके समान ये मी सो गई अब राख रही को" इस कहावतके प्रकाशमें आना। इसके रिये मेरी सम्मतिमें अनुर हमारे भाई अवश्य ही विचार करेंगे दाहोद (पंचमहाल ) स्थान बहुत योग्य है, और अपने इन प्रांतोंकी अज्ञानमन्च दीन हीन कारण यहां पोष्ट है, तार है, रेलवे स्टेशन है,
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(२७)
दिगंबर जैन । मकवायु सुखद है, मोजनादि व्यय मी कम जीव-दया। पड़ता है, उक्त दोनों प्रांतोंका केन्द्र मी है, . व्यापारी स्थान है इत्यादि पुमीते हैं । इसके
(एक अंग्रेजी पोइमका अनुवाद ): सिवाय यहां १ जैन पाठशाला कई वर्षोंसे सुचारुरीत्या चल मी रही है। धर्मशालाका मकान शीघ्र शीघ्र चल करके हे प्यारे ! मी हालमें कार्य चलाने योग्य तेवार है। केवल
___उस कीड़ेको मत कुचलो। एक या दो अध्यापकों और कुछ छात्रवृत्तियोंकी तुच्छ समझते हो तुम जिलको,
आवश्यकता है तो इसका प्रबन्ध होते ही कार्य . वो मी है इक जीव महो॥ प्रारम्भ हो जायमा, आशा है कि आप लोग इस अपीलपर ध्यान देकर और अपने बाल- जो मालिक तप जीव मात्रका, कोंकी पुकारको सुनकर इस छोटीसी मांगको
__ जिसने तुम्हें बनाया है। पूरी करेंगे। अर्थात् शीघ्र ही इस स्थानमें १ उस बेचारे कीड़े पर मी, . "सन्मति शिक्षा सदन" खोलकर अपनी उदा
दयाभाव दरसाया है। रता प्रगट करेंगे । अथवा अपना कर्तव्य ही पालन करेंगे।
सुरज, चांद, सितारे सबको, कर्तव्य अरु निन देशकी, .
किंतु किसीको खास नहीं । अवमत दशाको देखकर । जैसी लुमको फैलाई है, . ? जीतव्य अरु निन द्रव्यको, ..
. वैसी उसको घास जमीं ॥ [जमीन] चपला समा चल लेखकर ॥. . ... (४) खोडकर "शिक्षा सदन",
खुश होने दो, लैने दो तुम, अब ज्ञान उन्नति कीजिये।
तनक जिशी खुशी उसे । अथवा विचारे पाठकों को,
हायः जान जो दे नहिं सकते, . - अपद रहने दीजिये ॥
क्यों फिर लेते 'प्रीय' असे ॥ : सोलहकारण धर्म । पन्नालाल जैन 'प्रिय'-फुलैरा। - अभी ही नवीन छपकर दुसरीवार तय्यार हुआ है। इसवार इसमें सोलहकारणवत कथा व सोलह
गृहस्थधर्मभावनाओं के सोलह सवैये भी बढ़ा दिये गये हैं। व दूसरीवार छप चुका है। बाइन्डिग होकर तैयार कुछ बढ़ाया घटाया भी गया है। की० ॥) होगया है । ए० १॥) सनिस्दः १) . मैनेकर, दिगंबर जैन पुस्तकालय-सूरत। मैनेजर दि जैन पुस्तकालय सरस।
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" वैद्य"
- दिगंबर जैन।
(२८) गरमीमें गरम चाय! अपने स्वास्थ्य सुखको तिलाञ्जलि दे बैठते हैं ।
चाय पास्तवमें बड़ी ही हानिकारक चीज है। चायका नित्य सैन स्वास्थ्यके लिए बड़ा यह
बड़ा यह अत्यन्त उष्ण, क्षिा और विषाक्त है। हानिकारक है। विशेषकर भारत जैसे गरम देश- इसको पान करते ही शरीर और मनमें एक वासियोंके लिए तो चायकी कुछ भी आवश्यक्ता प्रकारकी स्फूर्ति मालुम होती है । किन्तु पंछे नहीं जान पड़ती। पर दुःखका विषय है कि वही स्फूर्ति पहले से भी अधिक शिथिलता उत्पन्न आजकल इस देशमें इस हानिकारक पदार्थका कर देती है। चायके अधिक अभ्नाससे स्यामाप्रचार इतना बढ़ता जारहा है कि जिसको देख- विक दुर्बलता उत्पन्न होतो है, परिपाक यन्त्र कर बड़ा आश्चर्य होता है । बहुत लोग सबेरे खराब होकर भूख बन्द होगाती है। निद्रा नष्ट उठते ही पहले चाय देवताकी आराधना करते होजाती है और शरीर में विविध प्रकार के रोगोंहैं, पीछे और काम करते हैं । बम्बई, कलकत्ता की उत्पत्ति होती है। मादि बड़े बड़े शहरों में तो प्रायः सभी श्रेणीके न मालूम हम कब समझेंगे कि कौनता पदर्थ लोग दिनमें कई कई बार चायपान करते हैं। हम रे लिये तकर है और कौनता अहितकर । वर्षा, शरद, ग्रीष्म आदि भी ऋतुओंमें चायकी दूकानोंपर चायके भाराधकोंकी निरन्तर - भीड़ दगी रहती है। अत्यन्त गरभीमें नये २ ग्रंथ मगाइये। जब कि लोग अनेक प्रकारके ठंडे अर्क, प्राचीन जैन इतिहास प्रथम भाग) शर्बत, कर्फ, लेमनेट आदि शीतल पदयोंको जैन बालबोधक चौथा भाग-इसमे बारम्बार सेवन करते हुए भी प्रसको सान्त ६७ विषय हैं। पृ० ३७२ होनेपर मी मू. सिर्फ नहीं करसकते तब चायपानके द्वारा किस प्रकार १-) है । पाठशाला व स्वाध्यायोपयोगी है। शान्तिलाम करसकते हैं, यह समझमें नहीं आत्मसिद्धि-अंग्रेजी, संस्कन, गुजर ती ॥ भाता। चायके न्यवासायी तरह तरहके वाग्जालों जिनेंद्रभजनभंडार ( ७५ भजन ) - द्वारा लोगोंकी आंखों में धूल. डालकर अपना नित्यपूजा सार्थ उल्लू सीधा करते हैं । "गरमीमें गरम चाय इप्समें नित्य पूजा हिंदी भाषा में अनुवाद सहित ठंडक पहुंचाती है ।" इस प्रकारके मिथ्या और अभी ही नवीन प्रकट हुई है। पृ. १२८ व विरद्ध वाक्यों में पूर्ण चाय दम्पनियोंके विज्ञापन ,
मू० आठ आने। आज भारतके छोटे बड़े मी नगराका दोबारा जैन नित्य पाठ संग्रह। पर चमकरहे हैं।
नामक १६ जैन स्तोत्रोंका गुटका जो अमी मोले मारतवाली प्रायः ऐसी विज्ञापनी बातोंके नहीं मिलता था फिर मिल रहा है। मू० माठ माने प्रलोममें भाकर चायके चिरसहचर बननाते और मैनेजर, दि० जैन पुस्तकालय-सूरत।
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( ૨ )
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* प्रातः कर्म विचार. *
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(લેખક-માહનલાલ મથુરાદાસ, કાણીસા).
વહાલા ધર્મ બધુએ ! ! !
ભગ
પૂર્વના સમયમાં આપણે જૈન એટલે વિજેતા જેણે સર્વોપરી પદ પ્રાપ્ત કર્યું છે, તે જૈન વાનના ઉપદેશને માનનારા જતા કહેવાતા હાલ પણ કહેવાઈએ છીએ ખરા, બાકી ામાં પૂના સમયની ક્રિયા કે નથી તેવી ઉચ્ચતમ ધાર્મિક શ્રદ્દા !
નથી આપઆપીમિ
આપા સમાજમાં દૃષ્ટિપાત કરતાં નથી જાંતી પ્રાતઃસધ્યા કે, નથી જશુાતી સ્નાન પૂજા. જણાય છે, ફક્ત રાટલા સ્નાન વિધિ એટલે કે ખાવાને સમયે સ્નાન કરવાની કુપ્રથા ?
दिगंबर जैन |
ONOPO
આ લેામાં, આ કાળમાં મહાવ્રત ધારણ કરવાં મહાન ફીણુ છે. આ જગમાં દીન એવા હું કયા ઉપાય વડે આ સંસારસમુદ્ર તરી શકીશ એવા મનમાં વિચાર કરી શૈયામાંથી ઉઠી શ્રાવ કાને માટે શુદ્ધ એવુ દિશા તરફ મુખ યક કરવું.
ખરી રીતે જોતાં આપણા કેટલાક અધુએ તે ક્રિયા જાણુતાજ નથી તેા કરે ક્યાંથી કેમકે આપણા પૂર્વાચાર્યાએ જે ક્રિયા બતાવી છે તે પ્રાકૃત અને સંસ્કૃત ભાષામાં છે, તેથી આપણે સમજી શકતા નથી, તેમજ આપણી કાછી ગાદીના નિમિત્તથી વળગેલા રહેતા આધુનીક કુલ મુરૂએ નથી તે ક્રિયાના ઉપદેશ કરતા જેથી મારા ઉમેદવાન અઆને તે ક્રિયાઓથી વાકે કરવા હું ઉપરના નામથી ભગવાન શ્રી જિનસેનાચાયના કથનાનુસાર શ્રાવકાની સવારમાં કરવાની ક્રિયાઅને મારા વિચાર!સહ રજુ કરૂ હ્યુ, તે વખતે મારામાં ક ́ઇ દોષ રહી જાય તેા તે વિદ્વાન વાંચકવર્ગ ક્ષમાની નજરે શ્વેશે એમ આશા છે.
શ્રાવકે પ્રાતઃકાલમાં પથારીમાંથી ઉઠી શ્રીજિને ભગવાનનું મનમાં ધ્યાન કરવું. આતંરાક, ધ્યાનાને છેડી દઇ સાત તાવાને વિચાર કરવા. ધ અને શુકલ એ છે ધ્યાનેાનું ધ્યાન કરવુ. અને પછી હમેશાં પોતાની ઈચ્છાવા અનિચ્છાથી થતાં પાંચસો નાશ કરવાવ સામાયક કરવું,
વસ્ત્ર ધારણ કરી પૂર્વ કે ઉત્તર કરીને માન ધારણ કરી સામા
સામાયક.
समता सर्वभूतेषु संयमे शुभ मारना ।
आ रौद्र परित्याग स्वद्धि सामायिकं मतम् ॥
અ-સર્વ પ્રાણીથી સમબુદ્ધિ ધારણ કરવી. સંયમમાં શુદ્ધ બુદ્ધિને લગાડવી. આર્ત્ત અને રાત્ર ધ્યાનના ત્યાગ કરવા તેનુ નામજ સામાય૪.
આજે તા આપણે પલાંઠી વાળી સામાયકની ચેાડી હાથમાં લઇ સામાયક વાંચી જવું, યા માઢે હૈય તે અસ્ટમ પસ્ટમ લલકારી જવું. સવા રમાં યા અપેારે આઠ વાગે કે દશવાગે સધ્યાકાળે યા રાત્રે નવવાગે કે દશાગે જ્યારે મન ડાય ત્યારે સામાયક લલકારવું' તેને સામાયક કર્યું. એમ કહીએ છીએ. વળી કેટલાક તે વાતેા કરતાં જાય તે મનમાં પાઠ પણ ચાલતા હોય એમ ડેળ કરે તેને પણ સામાયક કર્યું એમ સમજે છે. આપણે સામાયકને એવી રીતે બહુજ ઉતારી પાડયું છે. નહિ તે। સામાયક એજ મનુષ્યમાત્રની મુક્તિને રસ્તા છે. સર્વ ‘ ધર્મવાળા ' સામાયકના સ્વિકાર કરે છે. કાઇ પ્રાણાયમ કહે છે, તેા કેમ ચેગાભ્યાસ હે છે. કાઇ ધ્યાન કહે છે, તેા કાષ આત્મવિચાર કહે છે, પશુ એ સર્વેના સામાયકમાંજ સમાવેશ થાય છે. વળી હાલમાં આખા ભરતખંડમાં ચાલી રહેલી રાષ્ટ્રીય પ્રવૃત્તિમાં પશુ સામાયક એ સમાનતાની—ય તરફ પણુ બંધુભાવ બતાવવે, એમ ખાસ કહેલુ છે. તેમજ ખુદ્દ મહાત્મા ગાંધીજી સરખા પણુ સામાયકના સ્વિકાર કરી દરરાજ એ કલાક આત્મધ્યાનમાં વીતાડે છે. મનુષ્ય માત્રે ચાવીસ કલાકમાંથી પા અડધા કલાક ફ્રાજલ કાઢી સામાયક હરનિશ કરવુ જોઇએ.
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આપણા શાસ્ત્રવાળા તો તેની મર્યાદા પણ ૪ મિચ્છામિ દુક્કડમ બાંધી ગયા છે એટલે કે ઓછામાં ઓછી અડ- ૫ શ્રાવક પ્રતિક્રમણ સુત્ર ( પ્રાકૃત ) તાલીસ મીનીટમાં સામાયક સંપૂણ થઇ શકે.' ૬ ત્રિવણચાર માંહેનું સંસ્કૃત સામાયપાઠ
આપણે કલાકોના કલાકો ગપાટા હાંકવામાં ઉપર પ્રમાણેના પાઠ પૈકી જેટલી કુરસદ હાય ગુમાવીએ છીએ. મીનીટોની મીનીટો વાળ ઓળવા તેટલા પાઠ કરવા અગર એક પાઠ તો અવસ્ય ચળવા કે તેલ ઘાલવામાં ખર્ચી નાખીએ છીએ, કરે. ગુજરાતી ભાષા જાણનારા માટે આ નીચે તીલક કરતાં ખોઈ બેસીએ છીએ, તે ધર્મધ્યા- હું મહાચંદ્રજીકૃત સામાયક પાઠ ઉપરથી લખેલું નના સાધનભૂત મનુષ્ય માત્રની ત૨૪ બંધુભાવ ગુજરાતી સામાથક ઉતારું છું, તે આજ સુધી પ્રકટાવનારું સામાયક કરવા પા કલાક પણ નહિ નહિ સમજવાથી યા નહિ ઉકલવાથી જેઓ રોકીએ ?
સામાયક પાઠ કર્યા સિવાય રહેતા હોય તે એ દિવસે ટાઇમ ન મળે તો સંધ્યાકાલે, તથા ગુજરાતી પાઠને શીખી સામયિક કરવાની ટેવ કાલે ન બને તો સવારમાં જરા વહેલા ઉઠી તે પાડશે તો હું મને કૃતકૃત્ય સમજીશ. વખતે પણ સામાયિક તે અવશ્ય થવું જોઈએ. મારા આ સામાયકનો સ્વિકાર થશે તે સંસ્કૃત અને સમભાવ એજ શ્રાવકનું ભૂષણ છે.
પાઠ અને આલોચનાપાઠને ગુજરાતીમાં લખી વિધિ.
આપની સેવામાં રજુ કરીશ. કાળ, યોગ્ય આસન, યોગ્ય સ્થાને, યોગ્ય મુદ્રા અને યોગ્ય આવર્ત અને યોગ્ય સ્થિ- " ગુજરાતી સામાયક પાઠ. રતા ધારણ કરી વિનયપૂર્વક મુનિની માફક
| હરિગીત છંદ. આવશ્યક ક્રિયા એટલે સામાયકનું સેવન કરવું.
૧-પ્રતિક્રમણ કર્મ. .. આ જન્મ મરણ લાભ હાનિ સોગ વિયેગ કાલ અનંત જગમાં ભ્રમણ કરીને, બંધુ અને શત્રુ સુખ અને દુઃખ એ વિષયમાં
દુઃખ બહુ મેં ભોગવ્યું, મારી સમબુદ્ધિ છે, એવી ભાવના સામાયક કરવી ભવચક્રના ફેરા વિષે ધરી જન્મ પાપ બહુ કર્યું. વેળા કરવી.
પૂર્વના મુજ ભવ વિષે સામયિક કદી નવ મળ્યું, આ વિધિ માત્ર મુખ્ય છે. બીજી સરલ વિધિ ધન્ય આજે ધન્ય છે જે સુખરૂપ તે સાંપડયું. ૧ દિગબર જનપત્રના સંપાદક સાહેબે બહાર પાડેલા હે જિન હે સર્વજ્ઞ મેં જે પાપ તે બહુ આદર્યા,. સામાયકપાઠ કે જેની અંદર આલોચના પાઠ મન વચન ને વળી કાયની ઐયતા વિણ તે કર્યા. અને લધ એટલે હીંદી સામાયક પાઠ આપેલા આપની હજુરમાં હું દેષ કહેવા છું ખડે, છે, તેમાં પ્રારંભે બતાવેલી છે, ત્યાંથી જોઈ લેવા દેષ સ સાંભળીને નાશ દુઃખોન કરો. ૨ સુજ્ઞ વાચકવૃંદને સુચના કરું છું. આ સ્થળે લખત ક્રોધ ભાન મદ લોભ ને વળી મોહ માયા વશ થયો. પણ લખાણ વધી જાય ને સંપાદકછ વખતે ઇવ દુઃખી ભાળતાં સ ચાર દયાને નવ થયો. લેખને સ્થાન ન આપે તો લેખ ખડયા કરે જેથી વળી કામ વિણ એકંદ્રને બે ત્રણ ચઉ પ ચંદ્રીની, વિધિ લખી નથી, તે વિધાનવગે ક્ષમા કરશે ? હિંસા થકી જે દેષ લાગ્યો નાશે આપ પ્રતાપથી.૩ - આજ સુધી મારા જોવામાં જાણવામાં સામા- સ્થાન ભ્રષ્ટ કરી વળી મેં દુઃખ જીવને આપીયું, યકના પાઠ નીચે પ્રમાણે આવ્યા છે
મુજ પગ નીચે પીલી દઈને પ્રાણ તેનું કીપીયું. ૧ અમિતગતિ આચાર્યક્રત સંરક્રત સામાયક પાઠ આ જગતને જે જીવ સવે તેહના ધણી અ૫ છે, ૨ મહાચંદ્રછકૃત હિંદી સામાયકપાઠ
અરજ કરૂં હું આપને મમ દેષ સર્વે કાપજો. ૪ ૩ મણકચંદજીક્રત આલોચના પાઠ (હીંદી) ઘનઘોર પાપને કરિતા ચેર અંજન જે હતો,
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તેહુના અપરાધ સર્વે મા માક્ તમે કર્યાં. એક છત્ર બારા ગણી મેં દેહ મમત રાખી, કરજો ક્ષમા હૈ નાથ ! કરૂણાવ ́તમારા દેષને, બીજા ગણી મે... ભિન્ન રૂડે। ભાવ સમતા નવ ધર્યાં. ષટ્કમ માંહે આ કર્યું... મેં શુદ્ધ આ પ્રતિક્રમણને ૫ માત તાત સુત બધુ ને વળી મિત્ર નિજતી નાર જે, ૨–પ્રત્યાખ્યાન ક. મુજ જીવથી તે ભિન્ન જાણી જાણ્યું આત્મ સ્વરૂપને. પ્રમાદને વશ મેં થઇ જે જીવની હિંસા કરી, કીચડરૂપી જગાળમાં ફસાઇ રૂપ નવ જાણીયું તેહના જે દોષ લાગ્યા પાપમાં વૃદ્ધિ થઇ. એક ક્રિયાદિ જીવને મે પ્રાણુ હ્રણી દુઃખ આપીયુ. મિથ્યા તો તે દોષ સવે ઇશના પરસાદથી, જીવે તા સમુદ્ર તે મુજ વિનતી દિલપર ધરા, સુખ સઘળાં સાંપડે ને દુઃખ નાશે જેથી. ૬ ભવ ભવ તણા અપરાધ મારા પ્રેમથી માફ઼ી કર ૧૫ હું પાપી ને નિજ છું વળી શકે દયાહીન છું, ૪-સ્તવન કર્યાં. પાપ કર્યાં મેં કર્યાં છે, પાપ બુદ્ધિવાળા હું. નિર્દુ સદા મુજ જીવને જે વાર વાર ગતિ ધરે, સત્ય વિશ્વ ધમે વરી તે પાપ કાર્ય આદરે. ૭ દુર્લભ છે નર જન્મ ને વળી કુળ શ્રાવકનું ખરૂ, સતજન સચેાગ તે વળી જિન શ્રદ્ઘા સાંપડયું. જિતેંદ્રના મુખકમળથી જે ઉપજી સરસ્વતી, ધિ મુજને ધિક છે મે' આણુ લાપી તેમની. ૮ ઈંદ્રીયતા લંપટ ખની મેં જ્ઞાન–ધન ગુમાવીયું, હિં‘સક વિધિ હૃદયે ધરીને અજ્ઞાની નામ કહાવીયું, ગમનાગમન કરવા થકી જે જીવતી હિંસા અને, ૌષ સવે નિંદુ છું. પ્રભુ મન વચન કાયે ત્રણે. આલેાચનથી દેષ લાગ્યા, મુજ શિર અથાગ જે, આપ સમજિનેન્દ્રના પ્રસાદથી તે હાસશે. મેાહુ મંદ ને કુટીલતા જે વારવાર મેં ધારી છે, દ્વેષભાવ ધરી હદે ભયભીત થઇ નિંદુ...હું તે. ૧૦ ૩-સામાયક ક
૮
પ્રથમે નમી રૂષભેશને કરી ધ્યાન અજીતેશનુ ભવ દુઃખ હરણુ સંભવ પ્રભુ થઇ શુદ્ધ અભિન ંદન ભજી સુમતિના દેનાર સુમતિનાથ ભવથી તારો, છઠ્ઠા પ્રભુ એ, પદ્મતજી ભીતિ ભવની ભાંગજો ૧૬ સુપાર્શ્વજીત એ સાતમા મુજ દેઉં શુદ્ધ બનાવજો, ચંદ્ર કાંતિસભ કાંતિધારક ચંદ્ર પ્રભુ સુખ આપજો. ભવ દુઃખને નિવારીને પ્રભુ પુષ્પદંત દેખાડો, શીતલ જગતને શાંતિ કરીને ભય ભવના ભાંગજો ૧૭ શ્રેય કર્યાં શ્રેય ભર્તા ધ્યેયરૂપ શ્રેયાંસ જે સત શ્ચંદ્ર છે જેના પૂજક વસુ પૂજ્ય સુખ ક્રર્તારતે વિમલ વિમલ ગુણુ દાખવે વળી અંતગત અનંત જે, ધર્મ દાતા ધર્મ જૈન છે શાંતિ શાંત કરનાર તે ૧૮ ગ્રંથુ. મુક્તિ આપશે. અરનાથ ભવને કાપો મંત્ર મારથી વિદારી મલ્લી મેહને મારશે. વ્રત કરત સુવ્રત મુનિ નમિનાથને સુરસેવે છે, ધર્મરક્ષમાં ાર થને જ્ઞાન નૈમિ આપશે ૧૯ ધરણેને પદ્માવતી ઇશ જે પ્રભુ પાર્શ્વ છે. દક્ષા પ્રભુ મહાવીર છે જે દુ:ખ ભવનું કાપશે. તેમને હું વારવાર સ્તુતિ કરી વંદન કરૂં,
બુદ્ધિ એવી હે પ્રભુજી મેક્ષ સ્ત્રી જલ્દી વર્· ૨૦ યુ-વંદના કરેં.
સમતા. ધરૂં હું સવથી જે જીવ છે પૃથ્વી ૩ હી સમભાવ રાખું જીવ સત્રે જ્યોતિ સ્ફુરે જ્ઞાનની, આ રૂદ્ર છેાડીને સામાયકે ચિત્ત આદરૂ, મુજ ભાવ શુદ્ધ બનાવી એક ચિત્તથી સયમ ધરૂ:૧૧ા પૃથ્વી જલ તે અગ્નિ વાયુ, કાય ચાર વનસ્પતિ, પાંચ થાવરમાં વળી જ્યાં વાસ ત્રસ જીવને અતિ ઇંદ્રિય એ ત્રણ ચાર ને પાંચે મળી જીવ થાય જે, મારી ઇચ્છું સની કરજો ક્ષમા આ જીવ તે,૧ર ક ંચન કથીર અરૂ ધાસ સવે છે સમાન આ અવસરે • હેલસમ મસાણુ તે વળી શત્રુસમ મિત્રા બને. જન્મમરણને સમરીતે મેંય સમતા આદરી, ઢાળ સામાયક તણા જે ભાવ નનવન ત્યાં લગી.૧૩
ધીર તે વળી વીર જેવા સમતિ વંદન કરૂં, વર્ધમાન મહાવીર તે અતિવીર ખેલી હું સ્મરૂં. ત્રિશઢ્ઢા તનુજ ને ઇશ વિદ્યાના પ્રભુ વંદન કરૂં, નક સમ છે. કાય ની, પાપ છેાડી નિત નમું ૨૧ દુ:ખ દેષને નિવારો પ્રભુ સુત સિદ્ધારથ તા, દાવાનલ સઞ દુર્મતિથી જયલિત જીન ઉદ્ઘારતા. જનમ્યા પ્રભુ કુંડલપુરે જગ જીર્યને આનંદ થયો,
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दिगंबर जैन
૬-કાયોત્સર્ગ કર્મ.
બોતેર વર્ષની આયુથી સિા જીવતાં દુઃખો હર્યા. ૨૨
દેહરે. સાત હાથની કાય છે પ્રભુ, ભય નથી જન્માંત. ઓગણી સત છેતરમાં, નામે ફાગણ માસ. બ્રહ્મચર્ય જીવનમાં પ્રવેશી જ્ઞાનનો આદેશ કર્યો, સામાયક વર્ણન કર્યું, પ્રભુ ગુરુ ગાવા ખાસ. ઉપદેશ દઈને હે પ્રભુ ભવ-દુઃખથી જીવ તારીયા મથુરદાસને સુત હું, નામે મોહનલાલ. મોક્ષમાં પ્રભુ જઈ વયા, મુજ હૃદયમાં બિરાજીયા. ૨૩ કાણીસામાં ગાઠવ્યા, એ સુખદાયક આ પાઠ. જેહના વંદન થકી દુર દુઃખ હેતે થાય છે, ઉપર પ્રમાણે સામાયક કરવાનું ન બની શકે જેહના વંદન થકી મુક્તિ સનમુખ ધાય છે. તે સિદ્ધમંત્રનો જપ કરો. જેહના વંદન થકી સુર રવર્ગના સેવા કરે,
સિદ્ધમંત્રવીરનાથને હું જોડી પાણી પ્રિત સહિત વંદન કરે. ૨૪ છે નમઃ સિદસ્થ ષક સામાયક મહી આ પાંચમું વંદન કર્યું, ૩ નાતપtriાય પરમબ્રહ્મ સત દ્રથી જે વંઘ છે તે વીરને વંદન કર્યું. વિચલિત નજર જન્મ ને વળી મણનો ભય દૂર કરી પ્રભુ શાંતિ ઘે, ઉપરના મંત્ર ન આવડે તે નમોકાર મંત્રને મજ પાપના ભંડારને વળી દોષ સવે દૂર કરે. ૨૫ જ૫ કરો. તે પગ ન બની શકે તે ૐ અંસિ
મારવાય નમઃ આ મંત્રને જપ કરવો.
- એકંદરે ગૃહસ્થનું કર્તવ્ય છે કે તેણે પિતાનાં કાયોત્સર્ગ કરૂં હવે જે સુખરૂપી ભાગ છે,
ગ છ કર્મો(દેવ પૂજા, ગુરૂ ઉપાસના, સ્વાધ્યાય, સંયમ, ભવચક્રને જે કાય દુઃખની ખાણ છે.
* તપ ને દાન) હરનિશ કરવાં. પછી તેમાંથી પાત્રા
દિની અગવડતાને લઈ એકાદ કમ ન બની શકે પૂર્વ ને વળી દક્ષિણે નમી પશ્ચિમે ઉત્તર નમું,
તે હરકત નહિ પરંતુ સ્વાસ્થાય, ચામાયક, ભવ પાપના નિવાર કારણ છવ ગૃહે વંદન કરૂં ૨૬
સંયમ, વ્રત, તપ, દાન વિગેરે તે હમેશ કરવું જ મજ શિરને નચું નમાવી હાથ જોડી હું નમું જોઇએ. સામાયક થઈ ૨હ્યા પછી કહેવું કેમન વચન કાયે મોહ છોડી અવરોદક હું કરૂં . દેવોની સંપતિનું આકર્ષણ કરનારી, મુકિત ત્રણ લોક મધ્યે જિન ભવનમાં જિન જે અકૃતિમ છે શિવા વશ કરનારી, નરકાદિ ચાર ગતિમાં ઉપજતાં કતિમ બિંબ જે ઢાઈ દીપમાં પ્રેમે વંદુ તેહને ૨૭ દખાનું ઉચ્ચારણ કરનારી, આત્માનાં પાપને આઠ કોડ ને લાખ છપ્પન હજાર સત્યાગું જ છે, નાશ કરનારી, પ્રતિ દિવસ દુરાચારને સ્તંભન
કરનારી, મોહન સંમેહન કરનારી એ ચારસો એકાસી મંદિર જૈનનાં નિરધાર છે.
અક્ષ
રાત્મક પંચ નમસ્કાર રૂપા દેવતા મારૂં વ્યંતર અને જ્યોતિષ મહી જે બિંબ જૈની શેભતાં
રક્ષણ કરો ! સવે ગ્રહે વંદન કરૂં ભમ પા૫ જેથી ડાલતો ૨૮ ઉપર પ્રમાણે વિધિ થઇ ગયા પછી નીચે વિરને નિવારનારૂં છેજ સામાયક ખરૂ પ્રમાણે આત્મધ્યાન કરવું. મિત્રી ભાવ બતાવનારૂં એજ સામાયિક ખરૂ શ્રાવક અણુ વતી વળી જે સાત ગુણ સ્થાની છે. કમરના ભાર મેં કયાંથી એકત્ર કર્યો !
અનેક પ્રકારનાં દુઃખોથી ભરેલા આ સંસા
રમાં આ જીવ પુણ્ય કર્મના ઉદયથી મનુષ્ય શ્રમ લઇ ઉધમ કરે નિજ આત્મ કાજે જે ભવિ
પર્યાયમાં જનમ્યો. આ પુરૂષ જન્મમાં આ જીવન સૈા કામને નિવારીને સામાયક નિત મન ધરી મહિમા ઘણો મોટો છે જેથી તેની પ્રાપ્તિ થવી રાગ દેષ મદભ ને વળી માહે કોધ ક્રોધ જે દુશ્મને અત્યંત દુર્લભ છે, એવા જિન ધર્મની પ્રાપ્તિને મોહન ધરે સમતા હદે તો નાશ પામે તેજને ૩૦ લઈ પાપને ક્ષય થાય છે.
છે આ
“ *SR મે કયાંથી એકત્ર કર્યો
હન ત્રિવારનારૂં સામાયક ઉમે
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આહાર, ભય, પરિગ્રહ, મૈથુન, આ ચાર થાય છે, તેમજ મરણની ભય'કર ભીતિ રહે છે, ભેદથી પીડાતા આ જીવને આ ત્રિભુવનના કાઠામાં તેથ દેવોને પણ દુ:ખમય જીવનજ ગાળવું થોડું પણ સુખ હોતું' નથી.
પડે છે. | નરકમાં બહુજ દુ:ખ છે. ત્યાં ઠંડી ઘણી છે. - આ જગત એક સારી રીતે તૈયાર કરેલી ગરમી ધણી છે. ત્યાં ભૂખથી બહુજ ત્રાસ થાય નાટકે શાળા છે. જે સિદ્ધ પરમારને તે પ્રેક્ષક છે, છે. શરીરને તોડે છે. મારે છે. કરવતથી કાપે અને જુદી જુદી જાતના દેહ ધારણ કરનારા છે, ભાલા ભાકે છે, ધાણી માં ઘાલી તેલ કાઢે આ જીવ તે ય કરનારો છે. ને તે નાટકાચાર્યનું છે, આંતરડાં કાઢે છે, માટી ડાંગથી માર પડે કામ પણ કરે છે. જેવી રીતે લાલ, પીળા, લીલો, છે, પેટ અમિ પર ધરાવે છે. તે ખંડની ૫ તળા- વિગે૨ ૨ – ધારણ કરી ને નાચ કરે છે તેવી એથી પ કરાવે છે, એવી રીતે મુકુળ દ:ખ ૨ત આ જીવ પણ જુદાં જુદાં સ્વરૂપ ધારણ પડે છે. જીવે પુષ્કળ પાપ કરેલાં જેથી અનેક
કરી ઉંચ નીચ કુળમાં જન્મ લે છે.
કે દુ:ખ ભોગવે છે, અને નરકમાં સડે છે.
આ મનુષ્ય કોઈ ઠેકાણે વહાલી પ્રિયાના | તિય"ચ ચાનિમાં પણ બહુ જ દુ:ખ ટાય છે. માલિ ગનેના સુખના અનુભવ કરે છે, તો કોઇ ઉષ્ણુતા ઠંડી વિગેરે નરકના જેવું જ હોય છે. ઠેકાણે સુલલિત ગોયને! નું શ્રવણ કરી સુખ માને અરણ્યમાં સિહાદિ પશુથી ભયભીત બનાય છે. છે. કોઈ ઠેકાણે સુંદર ના ચના અનુભવ કરે છે. વળી મનુષ્ય પીઠ પર ધણા બાઝો લાદે છે, મારે તો કોઈ ઠેકાણે ધર્મભ્રષ્ટ થઈ વિષયસેવનમાં છે. એ ઝાÉ અવયવ કે આખું શરીર કાપે છે દ્રઢ થાય છે, એ મોટું આશ્ચર્ય છે. ક્ષુધા તૃષાથી પીડાય છે, કીડી કાંસાદિ કરે છે. આ જીવ કે ઈ ઠેકાણે કર્મ શ્રમથી સ્વરૂ ૫સ્વતંત્રતાનો નાશ થઈ બંધન યુક્ત થવાય છે. વાન સ્ત્રીનું સ્વરૂપ ધા૨ણ કરી અનેક પ્રકારના એવી રીતે ધણુ દુ:ખ ભોગવવા પડે છે.
હાવ ભાવે કેરે છે, તો કે ઈ વખત પંચ પ્રાણને - માથું ચે િમાં પૂર્વ જનનાં પાપવો ને ન' શ થવાથી નર૯ માં દુ:ખ ભોગવે છે. કામ ઈષ્ટ વરતના વિયોગ થાય છે, તો દુ:ખ થાય ઠેકાણે દસ દાસીથી છત્ર ચ મરના સુખને અનછે, તે સિવાય મનમાં થનારી પીડા, શરીરને
a ભવું કરે છે. કેાઇ ઠેકાણે મડદાના શરીરના થનારી પીડા ( ૨ાગ વિગેરે), જનમ જ લાગેલી
કીડા થા ય છે. માટે આ જીવ દેહથી ભિન ઉપાધિ અકસ્માતથી ઉપજેલી પીડા (ગેરે દુઃખ
છે. તે તે અજર અમર હાથ એક દિન પરમાત્મા - પ્રત્યેક મદુ ખૂની ૫,છળ લાગેલ' જ હોય છે તે પૂર્ણ થવાના છે. આ દેડ, લમી, પુત્ર વિગેરે અને સિવાય જે દરિદ્ર થાય છે, તો તેથી દુ:ખી ક્ષર્ણ ભંગુર છે, મારે તેથી કઇ સંબધજ નથી. થાય છે, અ૬ ઠત થાય છે તે દુઃખી થાય છે. હે પ્રભુ ! મારી બુદ્ધિ એવી રીતની બનાવે કે છત જ તી રહે છે તો દુ:ખી થાય છે, અને જેથી હું સંસા૨નાં બંધનાથી છુટી શ ક’ એવી - શાક વાથી દુ: ખ થાયું છે, કૈક ધ્યાનથી દુ:ખ ૧ તનું ચિંતવન કરવું. પછી ઉઠી જો ધરમાંજ ન થાય છે, કાષ્ટ વ્યસનમા જ કડાવાથી દુ:ખી થાય મંદિર હોય તો સર્વ પાપનો નાશ કરનારા. પુણ્ય છે, કોઈ ગુન્હાસર કેદખા માં જવું પડે તે
પ્રાતિના સાધનભૂત દેવદાનવ જેની સેવા કરે છે | દુ:ખ થાય છે, જે વી રીતે અનેક પ્રકારનું દુ:ખ
એવા મંગલપ્રદ શ્રી જિનેન્દ્રના બિંબનાં દર્શન મનુષ્યને થાય છે, એવું પ્રાતઃ કાબÍ ચિંતવન કરી
ચિતવન કરી નચે ની સ્તુતિ કરવી. કરવું,
વસંતતિલકાવૃત્ત. | દેવોને વિચાર કરે તો તેમાં પણ દેવીના સુતસ્થિતન કુમુન સુમંતરા | વિપાગથી દુ:ખ થાય છે. પદયુત થવાથી દુ:ખ કુટુથ મfeત થ િમંડળ મેઢ વરંતુ ||
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________________ अन्येन किं तदिह नाथ तवैव वकं / તની ટોચ, દેવાલય, નદીતીર, દર્ભની જગ્યા, ફુલની त्रैलोरमंगलनिकेतनमीक्षणीएम् // જગ્યા, ઘાસવાળી જગ્યા, વૃક્ષના મૂળ પાસે, પાણી, અન અને સ્મશાન છેાડી મળમૂત્રના ત્યાગ શાર્દૂલવિક્રિડિત. ક૨વે છે કે ઉપરના કૈાઈ પશુ સ્થળે તે ક્રિયા श्री लीळायतनं महीकुरु गृहं कीर्तिप्रमोदास्पद। કરવા બેસવું નહિ. તેમજ પાણી ન હોય ત્યારે, वाग्देवीरतिकेतनं जयरमा क्र डानिधनं महत् // ધેલું વસ્ત્ર ન હાય (તારે, પુસ્તક કે શાકા स स्यात्सर्वमहोत्तवैकमान र प्रार्थितार्थप्रदं / / / અગર તેનો વચન લખેલા કાગળ પાસે હાર્ય प्रातः इति कल्पवादपदलच्छार्य जिनांघ्रिदुरम् // ત્યારે મળ મૂત્રને ત્યાગ કર લે નહિ, તેવીજ રીતે સ્નાન કર્યા પછી કરેાટે મારી અને ભોજન વેસતતિલકાવૃત. કરી તરતજ તે ક્રિયા કરવી નહિં. धन्य: स एच पुरुषः समतायुतो यः / - અગ્નિ, સૂર્ય, ચંદ્ર, ગાય, દીવ, પાણી અને प्रातः प्रपश्यति जिनेंद्रमुखारविन्दम् / / થાળી માના સામુ’ મુખ કરીને ૫ણું મળમૂત્રને पूजा सुदानतपसि स्पृहणीय चित्त / ત્યાગ કરવો નહિ. તેમજ સંધ્યાકાળે પશ્ચિમ દિશા स्सेव्यः सदस्तु नृसुर्मुनि सोमसेनः // તરફ મુખ કરી તે ક્રિયા કરવી નહિ પરંતુ ઘરમાં મદીર ન હોય તો ભગવાનના ફેટાનું’ भरण्येऽनुदके रात्रौ चोर शघ्र कुल्ले पथि / પણ દર્શન કરવું. ત્યારબાદ તે દિ સે શું શું RBરહૃમૂત્ર પુરી ટૂક લો કુaતિ | કામ કરવું તેનો વિચાર કરે. કાળ, શરીર, મળમૂત્રનો વેગ મહુજ વધી ગયા હોય અને દેશ, શ, મિત્રપરિવાર, પ્રાપ્તિ, ખર્ચ, દ્રવ્ય, પાણી ન હોય તે વખતે કોઈ 5 ધાતુમય જીવિકા, ધર્મ અને દાન તેનો વિચાર કરવો પદાર્થ હાથમાં લઈ તે ક્રિયા કરવાથી દોષ લાગતા તેમજ તે દિવસે સવારથી બપોર સુધીમાં કરવાનું નથી. પરંતુ તે સમયે એ ટલું યાદ રાખવું કે જે મુખ્ય કર્તવ્ય તેના મનમાં વિચાર કરો. પાણી મળે તરતજ સર્વ કપડાં પલાળી સ્તાન - પછી પૂર્વનાં વøા ધારણ કરવો અને અગર ખુ’ કરવું અને અપરાજીત મંત્રથી પ્રાયશ્ચિત્ત લેવ', ૩માલ વિગેરે ન લેતાં ફક્ત પહેરેલું છે.તીય. ગૃશ્ય શ્રાવકે મળમૂત્રા કામ કરતી વખતે અને એાઢેલ દુ એ વસ્ત્ર અને પાણીના જમાઈને જમણે દાને યા બંને કાને અમર ગળે લેટા લઇ નમઃ રિdu: એ મંત્રને ઉરચાર કરી વાટી દેવી. નાકII જે છિદ્રમાંથી શ્વાસ બહાર આવતા હોય મળનો ત્યાગ કરવા જે જગ્યાએ બેસવાનું તે પગ પહલે મુકી દિશા જવા મન કરવુ. છે, તે જ ગ્યા ઘાસથી સ ફ ક્રરવી. ત્યાર બાદ | ગામેથી છેટે જઈ ગુપ્ત જગ્યાએ કે જ્યાં આઢેલું વસ્ત્ર મરતકે વી"ટવું, તે ક્રિયા કરતા જીવ જંતુ હાય નહિ ત્યાં ભૂત, પ્રેત, પિશાય, સુધી બાલવું ન૬િ. તેમજ શ્વાસોશ્વાસ કરવા નહિ યક્ષ, દેવ, દેવી આદિનું સ્થાન છોડીને તેનાથી તેમ થુંકવું પશુ નહિ ને બન્ને પગ સરખા દૂર જ ઇ મુળ ત્યાગ કરવા. રાખવા. આ પ્રમાણે જે નથી કરતો તે સંયમ કદાચ તળાવમાં જ મૂત્ર વિસર્જન કરવાને જાતા નથી એમ સેમસેન આચાર્ય શ્રી ત્રિસમય આવે તે તળાવથી દશ હાથ જગ્યા છેાડી ચારમાં જણાવે છે.. એમ. અને મળ ત્યાગ કરવાનો સમય આવે પ્રાત:કા ળમાં, મિથુન વખતે, મૂત્ર અને શૈ == તા સે હાથ જગ્યા છોડી બેસવું. આજ પ્રમાણે કરવાં, દાતણ કરતાં, નાન કરતાં, ભજન કરતાં, નદી પર તેનાથી ચાર ધુણા મા પુથી જગ્યા છેાડવી, અને ઉમટી થાય ત્યારે પણ માને ધારણ કરવું' - ખેડેલી જ મીન, પાણી ભરા ની જગ્યા, પર્વ- એટલે કે બાલવું નહિ. ( અપૂ શું ). "जैनविजय " प्रिन्टिग प्रेस खपाटिया चकला,-सुरतमें मूलचंद किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया और "दिगम्बर जैन" आफिस, चंदावाड़ी-सूरतसे उन्होंने ही प्रकट किया।