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________________ " वैद्य" - दिगंबर जैन। (२८) गरमीमें गरम चाय! अपने स्वास्थ्य सुखको तिलाञ्जलि दे बैठते हैं । चाय पास्तवमें बड़ी ही हानिकारक चीज है। चायका नित्य सैन स्वास्थ्यके लिए बड़ा यह बड़ा यह अत्यन्त उष्ण, क्षिा और विषाक्त है। हानिकारक है। विशेषकर भारत जैसे गरम देश- इसको पान करते ही शरीर और मनमें एक वासियोंके लिए तो चायकी कुछ भी आवश्यक्ता प्रकारकी स्फूर्ति मालुम होती है । किन्तु पंछे नहीं जान पड़ती। पर दुःखका विषय है कि वही स्फूर्ति पहले से भी अधिक शिथिलता उत्पन्न आजकल इस देशमें इस हानिकारक पदार्थका कर देती है। चायके अधिक अभ्नाससे स्यामाप्रचार इतना बढ़ता जारहा है कि जिसको देख- विक दुर्बलता उत्पन्न होतो है, परिपाक यन्त्र कर बड़ा आश्चर्य होता है । बहुत लोग सबेरे खराब होकर भूख बन्द होगाती है। निद्रा नष्ट उठते ही पहले चाय देवताकी आराधना करते होजाती है और शरीर में विविध प्रकार के रोगोंहैं, पीछे और काम करते हैं । बम्बई, कलकत्ता की उत्पत्ति होती है। मादि बड़े बड़े शहरों में तो प्रायः सभी श्रेणीके न मालूम हम कब समझेंगे कि कौनता पदर्थ लोग दिनमें कई कई बार चायपान करते हैं। हम रे लिये तकर है और कौनता अहितकर । वर्षा, शरद, ग्रीष्म आदि भी ऋतुओंमें चायकी दूकानोंपर चायके भाराधकोंकी निरन्तर - भीड़ दगी रहती है। अत्यन्त गरभीमें नये २ ग्रंथ मगाइये। जब कि लोग अनेक प्रकारके ठंडे अर्क, प्राचीन जैन इतिहास प्रथम भाग) शर्बत, कर्फ, लेमनेट आदि शीतल पदयोंको जैन बालबोधक चौथा भाग-इसमे बारम्बार सेवन करते हुए भी प्रसको सान्त ६७ विषय हैं। पृ० ३७२ होनेपर मी मू. सिर्फ नहीं करसकते तब चायपानके द्वारा किस प्रकार १-) है । पाठशाला व स्वाध्यायोपयोगी है। शान्तिलाम करसकते हैं, यह समझमें नहीं आत्मसिद्धि-अंग्रेजी, संस्कन, गुजर ती ॥ भाता। चायके न्यवासायी तरह तरहके वाग्जालों जिनेंद्रभजनभंडार ( ७५ भजन ) - द्वारा लोगोंकी आंखों में धूल. डालकर अपना नित्यपूजा सार्थ उल्लू सीधा करते हैं । "गरमीमें गरम चाय इप्समें नित्य पूजा हिंदी भाषा में अनुवाद सहित ठंडक पहुंचाती है ।" इस प्रकारके मिथ्या और अभी ही नवीन प्रकट हुई है। पृ. १२८ व विरद्ध वाक्यों में पूर्ण चाय दम्पनियोंके विज्ञापन , मू० आठ आने। आज भारतके छोटे बड़े मी नगराका दोबारा जैन नित्य पाठ संग्रह। पर चमकरहे हैं। नामक १६ जैन स्तोत्रोंका गुटका जो अमी मोले मारतवाली प्रायः ऐसी विज्ञापनी बातोंके नहीं मिलता था फिर मिल रहा है। मू० माठ माने प्रलोममें भाकर चायके चिरसहचर बननाते और मैनेजर, दि० जैन पुस्तकालय-सूरत।
SR No.543189
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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