Book Title: Digambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 11
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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(२३)
दिर और
पुरुष वाच:-रहे थिर न गिरिराज लागे लान, रहै थिर न काया, न जोवन, न धन ।
अधिर पुष्प सेज्या अथिर जग सदन, अथिर प्रीति भी चील त्यामे कळन ॥१॥ पि० स्त्री०-लगा पाद बरसातका धागमन, किलो करें पंक्षीगन मिल चमन ।
विदेशी समन भी सिघारे सदन, रहें नारि बरसाथ अट्टालिकन ॥ पुरुष०-करें वास क्या ऊंन अट्टालिकन, छः खंडों बचे नाहि चौरासी खन ।
गै काल व्यारी गिरै तरु चमन । धरम, देव, गुरु शास्त्र विनको शरण ॥२॥ पि. स्त्री०-ए सावनकी यामिन, सुहानी पवन, हिलोरें घटा मेघ लागे झरन ।
झुलाऊँ हिंडोला तुम्हें मन सनन, मरूँ राग तो संग यही भाव पन ॥ पुरुष-हिंडोला नगत यह अनादि निधा, लगी दोय डोरी जे घावोगमन ।
चलें झुकंवा चहुँगति लगै विध पवन, मरूँ राग 'सोह, स्वयं ना विपन ॥२॥ पि. स्त्री०-न भादोंमें पक्षी भी छांडै सदन, रहें नारी नरं दोनों हिलमिळ मैंगनं । - अंधेरी मुकै घोर कर बरसे बन, हुए एक जल थल करो किम गमन ॥ पुरुष-अकेला करे चारों गतिमें गमन, सके रोक अंधेरी न जल थल न धन । ___अकेला सहै दुःख जन्मन मरन, चलें सा तन धन न परमन सुनन ॥ ॥ पि. स्त्री-चलै शीत पावस ग्रीषम पवन, जनावे सुखासौज तीनों रितुन ।
जड़ी नारी बहु फूल द्भुत फवन, मिल क्षीर जक सम तिया मीत मन ॥ पुरुष-मिलै क्षोर जक तेल तिल रंग पतन, त्यों ही तनमें चेतन सुगंत्री सुमन ।
सवै द्रव्य पारी निराळे गुनन, धरै पस्नै न्यारी लखो जिन श्रुतन ॥ ५ ॥ पि. ॥ स्त्री-खिले चंद्र कातिक है निर्मक गगन, सुगंधे मलें सब सनावे सदन । ___मनावे दिवाली भरें मोद मन, करें धूत क्रीड़ा रमावौ रमन ॥ पुरुष-नप्ताव सुगुन धन फसाव दुखन, मलिन चूत कोणा करें ना सुमन ।
सुगंधैं करें सब अपावन यह तन, अशुचि जान यासे न राचे रमन ॥ ६ ॥ पि० ॥ स्त्री-लगा शीत अगहन परन को गहन, खुले प्रेमके द्वार चारों तन ।
घनी प्रीति धारे सबै ज्यों बप्तन, लगावे धनी स्यों घनासे लगन ॥ पुरुष०-खु दर सदाचार ऊपर त्रिपन, मिथ्यात्योग अवृत कषायाश्रवन ।
करें कर्म इन द्वारसे आक्रमन, छैटै डोरी ममता छुटै नग भ्रमन ॥ ७ ॥ पि० ॥

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