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दिगंबर जैा।
(२०) व्रतादि समस्त सद्गुण प्रक्ट नहीं होते हैं। वसे जाम जन्ममें दुःख उठाने पड़ते हैं। विशेष जिस तरह उन्मत्त मनुष्य माको बहिन मार्याको तो क्या यह नीब छश प्रकारके क्षमा, मार्दव, माता, भ्राताको पिता, पिताको माई, माको माता, आर्जव, शौच सत्यादि पवित्र धर्मोंका मी आचमार्याको भार्या कह देता है किंतु वास्तव में ये रण करे, निर्दोष मिक्षावृत्तिका मी आचरण करे, सब क्या हैं इस बातका निश्चय नहीं कर सकता ब्रह्मचर्य व्रतका भी पालन करे, और माहारदान, उसी तरह पिध्यात्वके प्रबल प्रभावसे हेयको औषधदान, शास्त्रदान और अमदान इन चार उपादेय, सतको असत् समझता है परन्तु वास्त- प्रकारके दानोंको मी देता रहै, समक्ति अरविक बातको नहीं जानता है।
__ हंत देवकी उपासना करे, अनेक प्रकार के उद्धर्वलोक, मध्यलोक, पाताल लोक और भूत उपवास करे भादि धार्मिक कार्य कितने ही भविष्यत, वर्तमानकालमें मानसिक वाच.नक क्यों न करो लेकिन अबतक हमारे हृदयश्टल से शारिरिक अरु दुःख होते हैं वे संपूर्ण संसार- मिथ्यात्व दूर नहीं होगा तब तक निराबःध सागर में परिभ्रमण करते हुए जीवों को इसी सिद्धपदको प्राप्त नहीं कर सकते । इसलिए प्रिय मिथ्यात्वके महात्म्से होते हैं। हमारे असीम सज्जनो ! हम लोगों का परम कर्तव्य है कि उपकारक पूज्य पूर्वाचार्योंने इस तरह निरूपण हमारा अहित करनेवाले मिथ्यात्वको हृदयपटलसे किया है कि
दूर हटाकर जो हमारा सदैव हित चाहता है वरं विषं भुक्तम् सुक्षयक्षमं । उस सम्यक्त्वको अपने हृदय में स्थान देवें क्योंकि वरं बवं श्वापदनिषेवितं ॥ प्रातः स्मरणीय हमारे असीम उपकारक समन्तवरं कृतं वहि शिखाप्रवेशनं । मद्राचार्य स्वामीने अपने निर्माण किये हुए नरस्य मिथ्यात्वयुतं न जीवितं ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें यह कहा है कि:अर्थात् विष खा लेना अच्छा, श्वापद (कुत्ता) न सम्यक्त्वसमं किंचित्त्रैकाल्ये सिंह मालू आदि हिंसक प्राणियोंसे मरे हुए त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व. निर्जन बनमें रहना अच्छा है, अग्निमें गिरकर समं नान्यतनूभृताम् ॥ आत्म विसर्जन करदेना मी श्रेष्ठ है किन्तु इस अर्थात तीन काल और तीन जगतमें सम्यक्त्व. संसारमें उनकी अपेक्षा समिथ्यात्व जिंदा रहना के सहश जीवोंका कोई कल्याण करनेवाला नहीं श्रेष्ट नहीं है। इस संसार में भीवों का जितना है और मिथ्यात्वके समान अकल्याण करनेवाला भहित मिथ्यास्वरूपी परमशत्रु करता है उतना नहीं है। सिंह, सर्प, मदोन्मस हस्ती, रुष्ट राजा आदि कोई - भी नहीं कर सकते क्योंकि सिंहादि हिंसक पवित्र काश्मीरी केशरपशुओंके कारखानेसे तो एक ही भवमें दुःखोंका का भाव २॥) की तोला है। सामना करता है किन्तु मिथ्यात्वके प्रबल प्रमा- मैनेजर, दिगंबर जैन पुस्तकालय-सरत ।