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दिगंबर जैन |
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( १४ )
चालिस - शेरों (सेरों) से करे युद्ध, वह मन - निग्रह करके बुद्ध । इससे ही मनके दमनहेत, गृह तज नित मुनि रहते सचेत
दंड, विनय वारे महान्, गुरु सेव करें नितप्रीतिमान । अभ्यास ज्ञानका करें निध्य, होते त्यागी जन दख अनित्य नित आत्म- ध्यान में रहे ठीन, जग लीलाकी कर छान-बीन । इस भांति सतत तपकर मुनीश, हो मुक्त विराजे जगत - शीश यो तप हितकर जान, करो सदा सब चतुर जन । दुर्लभ नरभव मान, व्यर्थ विसारो क्षण नहीं
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८ उत्तम त्याग ।
त्याग कहो या दान देना उत्तम सर्वदा ।
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हो निज पर कल्याण, व बढ़े देथे वस्तु सदा ॥ १ ॥ इस भव वनमें नित भ्रमत जीव, दुख सहते रहते हैं अतीव । बहुव्याधिव्यथित तन दिन आहार, मय-मीत सदा अज्ञान घार बहुते बरसे पीडित सदीव, बहु प्लेग-रोगसे नशें जीव । बहुतों का 'क्षय' करता वित्रात, बहुतोंपर रहती कुपित 'बात' बहुतों को नाशे कुपित 'पित्त', बहुतों को 'कफ' करता अचित्त । बहु - उदर शूल से - तड़फड़ाय, मरजाते करते हाय ! हाय !! बहु का श्वास वश व्यथित - काय, निज जीवनको देते नशाय । औषधि दे करना रोग मुक्त, है प्राण-दानके तुल्य युक्त औषधि देना है मुख्य धर्म, बट तरुवत् फलता यह सुकर्म । जो औषधि देते वीर वीर, वे पाते हैं उत्तम - शरीर विन भन्न जगे जब उदर आग, बहु जन देते तच प्राण त्याग | जो क्षुधित देख दें अन्न दान, वे होते हैं सम्पति-निधान पट बिन जो रहते सतत तंग, पट देकर उनका ढको अंग । प्यासेको शीतल जल पिलाय, झट तृषा-अनलको दो बुझाय ज्योंके हरि पंजोंमें हिरन, मयभीत हुआ करता रुदन । अशरणको मयभीत पाय, झट-पट ही उरमें लो लगाय १ - दान देने योग्य वस्तु । २ खांसी ।
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