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दिगंबर जैन ।
(१२) पन्नग-विष नाशे है शरीर, लगता चेतनमें बचन तीर । पन्नग विषके हैं सो उऑय, बचनोंका विष उतरे न हाय ! माला, मणि, चन्दन, शशि, समान, या मृदु भाषाको सुधा जान । चिंतामणि वा वह कल्पबेल, है स्वर्ग-मार्ग या मोक्ष गैल चित चातकको वह स्वाति बंद, मन फटे हुएके लिये गूंद । हृदयानलको धनके समान, करवाती सबको सुधा-पान
सत्य-रसायन पाय, खाओ हृदका रोग तुम । नहिं कुछ अन्य उपाय, भव-सागरसे तिरनका ॥८॥
५. उत्तम शौच । धर चित नित संतोष, दुखद लोभको त्यागकर ।
शानादिक धन पोष, सब सुखका जो मूल है ॥१॥ यह लोम वानल हृदय बीच, जब जगती, करती कार्य नीच । व्रत, जप, तप, संयम, ज्ञान, दान, सब जलकर होते रन समान ॥२॥ धन-ईधनको है सतत पाय, लोमानल बढ़ती चली जाय । चक्रीपदके भी नहीं भोग, कर सकते उसको शांत शोक ! ॥३॥ इस लोमानकरों दग्ध जीव, अतिनिदित कार्य करें सदीब । छल कपट निरंतर लूट-मार, पर तनु काटें ले सड़ग धार जो पैदा करते मात-तात, लोभी उन तकका करें घात । जग-सम्पतिको बहे प्रत्येक, हिस्से में कण आता न एकशुचि चिन्मणि-मंदिर बना देख, ज्ञानामृत-बापी मरी, पेख । नित लोल-कलोल करें विवेक, नहिं बाधा भाती पास एक डुबकीको एक लगाय मित्र, देखो ! फिर आनन्द है विचित्र । जो डूब गये मझधार माहि, संसार में उनका पता नाहि
शौच-सुधाकर पान, लोभ-दाह मेटो दुखद।
शुद्धातमका ध्यान. करके पहुंचो शिवनगर ॥८॥ १ चंद्रमा । २ हृदयकी अग्नि । ३ मेघ ।