________________
(११) .
१०. उत्तम-ब्रह्मचय । अतुल बली यह मार, व्यथित करे जगको सदा । इसका कर संहार, ब्रह्मचर्य पालन करो भव-बनमें हरि सम सुपट मार, निर्मय जगका करता शिकार । हरि, हर, ब्रह्मा, चक्री नरेश, घस्णेन्द्र, इन्द्र, बच्चा, खगेश -- ॥२॥ सबका मर्दितकर मान. मार, बहु व्यथित करे है बार-बार । निसने कॅपाया है। पहार, वह रावण इससे गया हार काणा, रुश, गंजा, गलित-पुच्छ, मदमाता स्मरवश श्वान तुच्छ । स्मरवरा गुरु लघु हों, क्षमी क्रुद्ध, मय, खाय शुर हों मूढ़ बुद्ध ॥४॥ अंगार सरीखो नारि जान, घृत कुंम सहश नर तन पिछान । न्यों अनल संगहो घृत विनष्ट, त्यों नारि संग हो मनुज- नष्ट हो मुर्छा, क्षय, भ्रम, ग्लानि, स्वेद, तो मी कामी नहिं गिने खेद । क्यों खान खुनाते पड़े चैन, त्यों कामी माने अमन-चैन नित मार बहै है पशु समान, फंस नारी चंगुल में नहान ।। फिर पाप-पोटका दीर्घ मार, ले गिरते जन दुर्गति मझार
॥ ७॥ मुनि ब्रह्मचर्य-तलवार घार, इस काम सुभटको सर्के मार । जग जयी कामसे ठान जंग, करे ब्रह्मचर्य ही मान मंग पुरुषार्थ भूर वृष मुकुट मान, यह ब्रह्मचर्य कोहेनुर जान । यह काम सर्पको गरूड़ रूप, जा तिरनेको नौका स्वरूप निकको औषधि दिव्य रूप, शिव-मंदिरकी सीढ़ो स्वरूप । मन-हस्तीको केहरि समान, विषयाशा-विषको मंत्र मान ॥१०॥ भ्रम-मोह-निशाको मानु जान, दुखनाशक सतसंगति समान । भव-कूप पड़ेको रज्जु रूप, मिथ्यामतिको जिन-11-स्वरूप ॥११॥
ख आत्म-रमण में मुख अशेष, अतिचार तनो पांचों हमेश । इस बिन नर-भव अति दुखद मान, पालो इसको नित सुखद जान ॥ १२ ॥
पाया नर-भव रत्न, "अमर" पुण्यके योगसे । कर अव ऐसा यत्न, जिससे भव बाधा मिटे ॥१३ ।।
स्वर्गीय ब्र. ज्ञानानन्दजी।। १ काम । २ सिंह । ३ धर्म । ४ इतिहास । ५ सिद्ध हीरा ।