Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 11
________________ धर्मपरीक्षा सन्धि ११, कड़वक २६ इय मेवाड-देसि-जण-संकुलि, सिरि उजउर-णिग्गय-धक्कड कुलि । पाव-करिंद-कुंभ-दारुण-हरि, जाउ कलाहिं कुसलु णामे हरि।। तासु पुत्त पर-णारि-सहोयरु, गुण-गण-णिहि कुल-गयण-दिवायरु । गोवड्ढणु णामे उप्पण्णउ, जो सम्मत्त-रयण-संपुण्णउ.। तहो गोवड्ढणासु पिय गुण वइ, जा जिणवर-पय णिच्च वि पणवइ । ताए जणिउ हरिसेण-णाम सुउ, जो संजाउ विवुह-कइ-विस्सुउ। सिरि चित्त उडु चइवि अचल उरहो, गउ णिय-कज्जें जिण-हर-पडरहो। तहि छंदालंकार पसाहिय, धम्मपरिक्ख एह तें साहिय । जे मज्झत्थ-मणुय आयण्णहिं, ते मिच्छत्त-भाउ अवगण्णहिं । तें सम्मत्त जेण मलु खिज्जइ, केवलणाणु ताण उप्पज्जइ । घत्ता-तहो पुणु केवलणाणहो णेय-पमाणहो जीव-पएसहि सुहडिउ । नाहा-रहिउ अणंतउ अइसयवंतउ मोक्ख-सुक्ख-भलु पयडियउ । सन्धि ११, कडवक २७ विक्कम-णिव परिवत्तिय-कालए, ववगयए वरिस-सहस च. लए । इय उप्पणु भविय-जण-सुहयरु, डंभ-रहिय-धम्मासव-सरयरु । बध हरिषेणने इस ग्रन्थ की रचनाका कारण इस प्रकार बतलाया है कि बार मेरे मनमें आया कि यदि कोई आकर्षक पद्य रचना नहीं की जाती है तो मानवीय बुद्धिका प्राप्त होना बेकार है । और यह भी सम्भव है कि इस दिशामें एक मध्यम बुद्धिका आदमी उसी तरह उपहासास्पद होगा, जैसा कि संग्रामभूमिसे भागा हुआ कापुरुष होता है। फिर भी अपनी छन्द और अलंकार सम्बन्धी कमजोरी जानते हए भी उन्होंने जिनेन्द्र धर्मके अनुराग और सिद्धसेनके प्रसादसे प्रस्तुत ग्रन्थ लिख ही डाला । इस बातकी झिझक न रखी कि हमारी रचना किस दृष्टिसे देखी जायेगी। ४. हरिषेणने अपने पूर्ववर्तियोंमें चतुर्मुख, स्वयम्भू और पुष्पदन्तका स्मरण किया है । वे लिख हैंचतुर्मुखका मुख सरस्वतीका आवासमन्दिर था । स्वयम्भू लोक और अलोकके जाननेवाले महान् देवता थे और पुष्पदन्त वह अलौकिक पुरुष थे जिनका साथ सरस्वती कभी छोड़ती ही नहीं थी। हरिषेण कहते हैं कि इनकी तुलनामें मैं अत्यन्त मन्दमतिका मनुष्य हूँ। पुष्पदन्तने अपना महापुराण सन् ९६५ में पूर्ण किया है । स्वयम्भूकी अपेक्षा चतुर्मुख पूर्ववर्ती हैं । धर्मपरीक्षा, पहले जयरामने गाथा-छन्दमें लिखी थी और हरिषेणने उसीको पद्धड़िया छन्दमें लिखा है। उपरिलिखित बातें प्रारम्भके कड़वकमें पायी जाती हैं, जो इस प्रकार हैंसन्धि १, कड़वक १ - सिद्धि-पुरंघिहि कंतु सुद्धे तणु-मण-वयणे । भत्तिय जिणु पणवेवि चितिउ वुह-हरिसेणें ॥ मणुय-जम्मि बुद्धिए कि किज्जइ, मणहरु जाइ कन्वु ण रइज्जइ । तं करंत अवियाणिय आरिस, हासु लहहिं भड रणिगय पोरिस । चउमुहं कव्वविरयणि सयंभुवि, पुप्फयंतु अण्णाणु णिसुंभिवि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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