Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 9
________________ ६ धर्मपरीक्षा श्रेणियों में से किसी में नहीं हैं जिनके बारेमें दस कहानियां सुनाई जाती हैं और जिनकी अन्तिम कथामें चार धूर्तोंकी वे अद्भुत कहानियां सम्मिलित हैं, जिनमें असत्य या अतिशयोक्तिसे खूब ही काम लिया गया है । मनोवेग ब्राह्मणवादियोंकी भिन्न-भिन्न सभाओं में जाकर अपने सम्बन्ध में अविश्वसनीय कथाएँ तथा मूर्खतापूर्ण घटनाएँ सुनाता है । जब वे इनपर आश्चर्य प्रकट करते हैं और मनोवेगका विश्वास करनेके लिए तैयार नहीं होते हैं तो वह महाभारत, रामायण तथा अन्य पुराणोंसे तत्सम कहानियों का हवाला देकर अपने व्याख्यानों की पुष्टि के लिए प्रयत्न करता है । इन समस्त सभाओं में सम्मिलित होनेसे पवनवेगको विश्वास हो जाता है कि पौराणिक कथाओं का चरित्रचित्रण अस्वाभाविक और असंगत है और इस तरह वह मनोवेग के विश्वास में पूर्णरीति से परिवर्तित हो जाता है । ग्रन्थका विषय स्पष्टतया तीन भागों में विभक्त है । जहाँ कहीं अवसर आया, अमितगतिने जैन सिद्धान्तों और परिभाषाओं का प्रचुरतासे उपयोग करते हुए लम्बे-लम्बे उपदेश इसमें दिये हैं । दूसरे, इसमें लोकप्रिय तथा मनोरंजक कहानियाँ भी हैं जो न केवल शिक्षाप्रद हैं बल्कि जिनमें उच्चकोटिका हास्य भी है। और जो बड़ी ही बुद्धिमत्ता के साथ ग्रन्थ के सर्वागमें गुम्फित है । अथ च - अन्तमें ग्रन्थका एक बड़ा भाग पुराणोंकी उन कहानियोंसे भरा हुआ है जिनको अविश्वसनीय बतलाते हुए प्रतिवाद करना है । तथा कहीं सुप्रसिद्ध कथाओंके जैन रूपान्तर भी दिये हुए हैं, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि वे कहाँ तक तर्कसंगत हैं । जहां तक अमितगति की अन्य रचनाओं और उनकी धर्मपरीक्षाको उपदेशपूर्ण गहराईका सम्बन्ध है, यह स्पष्ट है कि वे बहुत विशुद्ध संस्कृत लिख लेते हैं । लेकिन धर्मपरीक्षा में और विशेषतः सुप्रसिद्ध उपाख्यानोंकी गहराई में हमें बहुत बड़े अनुपात में प्राकृतपन देखनेको मिलता है। इससे सन्देह होता है कि अमितगति किसी प्राकृत रचनाके ऋणी रहे हैं । पौराणिक कहानियोंकी असंगतिको प्रकाशमें लानेका ढंग इससे पहले हरिभद्रने अपने घूर्ताख्यानमें अपनाया है । ये लोकप्रिय आख्यान, धार्मिक पृष्ठभूमि से विभक्त करनेपर भारतीय लोकसाहित्यके विशुद्ध अंश हैं और मानवीय मनोविज्ञानके सम्बन्ध में एक बहुत सूक्ष्म अन्तर्दृष्टिका निर्देश करते हैं । ३. वृत्तविलासकी धर्मपरीक्षा, जो लगभग सन् १९६० की रचना है, कन्नड़ भाषाका एक चम्पू ग्रन्थ है । यह दस अध्यायोंमें विभक्त है । ग्रन्थकारका कहना है कि इस ग्रन्थकी रचना इससे पूर्ववर्ती संस्कृत रचना के आधारपर की गयी है और तुलना करनेपर हमें मालूम होता है कि इन्होंने अमितगतिका अनुसरण किया है । यद्यपि वर्णनकी दृष्टिसे दोनोंमें अन्तर है, लेकिन कथावस्तु दोनोंकी एक ही है । यह कन्नड़ धर्मपरीक्षा अब भी हस्तलिखित रूपमें ही विद्यमान है । और प्राक्काव्यमालिकामें प्रकाशित ग्रन्थोंसे मालूम होता है कि वृत्तविलास गद्य और पद्य दोनों ही में बहुत सुन्दर कन्नड़ शैलीमें लिखते हैं । ४. पद्मसागरकी धर्मपरीक्षा जो सन् १६४५ ई. की रचना है, पं. जुगलकिशोरजीके खोजपूर्ण अध्ययनका विषय रही है । वे इसके सम्बन्ध में निम्नलिखित निष्कर्षपर पहुँचे हैं - पद्मसागरने अमितगतिकी धर्मपरीक्षासे १२६० पद्य ज्योंके त्यों उठा लिये हैं । अन्य पद्य भी इधर-उधर के साधारण से हेर-फेर के साथ ले लिये गये हैं । कुछ पद्य अपने भी जोड़ दिये हैं । इन्होंने सर्गोका कोई विभाग नहीं रखा है । अमितगतिके नामके समस्त प्रत्यक्ष और परोक्ष उल्लेख बड़ी चतुराई के साथ उड़ा दिये गये हैं । इस तरह पद्मसागरने अपनी रचनायें अमितगतिका कहीं नाम निर्देश तक नहीं किया । इनकी यह साहित्यिक चोरी साम्प्रदायिक दृष्टिबिन्दुको ध्यान में रखते हुए सफल रूपमें नहीं हुई है और यही कारण है कि इस ग्रन्थमें कुछ इस प्रकार के भी वर्णन हैं जो श्वेताम्बर सिद्धान्तोंके सर्वथा अनुरूप नहीं हैं। इस तरह पद्मसागरने अमितगतिका पूर्णतया अनुसरण ही नहीं किया है, बल्कि उनकी धर्मपरीक्षाकी नकल तक कर डाली है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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