Book Title: Dharmapariksha Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad View full book textPage 8
________________ प्रस्तावना धर्मपरीक्षा १. हस्तलिखित ग्रन्थोंकी संकलित सूची देखते समय धर्मपरीक्षा नामक जैन ग्रन्थोंकी एक बहुत बड़ी संख्या हमें दृष्टिगोचर होती है । इस लेख में हम विशेषतया उन्हीं धर्मपरीक्षाओंका उल्लेख कर रहे हैं, जिनकी रचनाओंमें असाधारण अन्तर है। [१] हरिषेणकृत धर्मपरीक्षा-यह अपभ्रंश भाषामें है और हरिषेणने सं. १०४४ (-५६ सन् ९८८) में इसकी रचना की है। [२] दूसरी धर्मपरीक्षा अमिलगतिको है। यह माधवसेनके शिष्य थे। ग्रन्थ संस्कृत में है और सं. १०७० ( सन् १०१४ ) में यह पूर्ण हुआ। [३] तीसरी धर्मपरीक्षा वृन्तविलासकी है। यह कन्नड़ भाषामें है और ११६० के लगभग इसका निर्माण हुआ है। [४] चौथो संस्कृत धर्मपरीक्षा सौभाग्यसागरकी है । इसकी रचना सं. १५७१ (सन् १५१५) की है । [५] पांचवीं संस्कृत धर्मपरीक्षा पद्मसागरकी है। यह तपागच्छीय धर्मसागर गणीके शिष्य थे। इस ग्रन्थको रचना सं. १६४५ ( सन् १५८९ ) में हुई। [६] छठी संस्कृत धर्मपरीक्षा जयविजयके शिष्य मानविजय गणीकी है, जिसे उन्होंने अपने शिष्य देवविजयके लिए विक्रमकी अठारहवीं शताब्दीके मध्यमें बनाया था। [७] सातवीं धर्मपरीक्षा तपागच्छीय नयविजयके शिष्य यशोविजयकी है । यह सं. १६८० में उत्पन्न हुए थे और ५३ वर्षको अवस्थामें परलोकवासी हो गये थे । यह ग्रन्थ संस्कृतमें है और वृत्ति सहित है । [८] आठवीं धर्मपरीक्षा तपागच्छीय सोमसुन्दरके शिष्य जिनमण्डनको है। [९] नवी धर्मपरीक्षा पार्श्वकीर्तिकी है। [१०] दसवीं धर्मपरीक्षा पूज्यपादकी परम्परागत पद्मनन्दिके शिष्य रामचन्द्रकी है जो देवचन्द्रकी प्रार्थनापर बनायी गयी। यद्यपि ये हस्तलिखित रूपमें प्राप्य हैं और इनमें से कुछ अभी प्रकाशित भी हो चुकी हैं। लेकिन जबतक इनके अन्तर्गत विषयोंका अन्य ग्रन्थोंके साथ सम्पूर्ण आलोचनात्मक तथा तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया गया है तबतक इनमें से अधिकांश हमारे लिए नाममात्र ही हैं । २. यह अमितगतिकी धर्मपरीक्षा है, जिसका पूर्ण रूपसे अध्ययन किया गया है । मिरोनोने इसके विषयोंका सविस्तर विश्लेषण किया है। इसके अतिरिक्त इसको भाषा और छन्दोंके सम्बन्धमें आलोचनात्मक रिमार्क भी किये हैं । कहानीकी कथावस्तु किसी भी तरह जटिल नहीं है । मनोवेग जो जैनधर्मका दृढ़ श्रद्धानी है, अपने मित्र पवनवेगको अपने अभीष्ट धर्ममें परिवर्तित करना चाहता है और उसे पाटलिपुत्रमें ब्राह्मणोंकी सभामें ले जाता है। उसे इस बातका पक्का विश्वास कर लेना है कि ब्राह्मणवादी मूर्ख मनुष्यों को उन दस १. अनेकान्त वर्ष ८, कि. १, प. ४८ आदि से साभार उदधृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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