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प्रस्तावना
जलपर यात्रा
साधु और साध्वी खरीदी गयी या उनके सत्कारकर्ताके द्वारा तैयार की गयी नावसे नहीं जाते । नावके मालिककी आज्ञासे नावपर बैठ सकते हैं । साधुको नावके चलाने में या उसे धक्का वगैरह देने में भाग नहीं लेना चाहिए। उसे नावके छिद्र भी बन्द नहीं करना चाहिए। यदि नाववाला साधुको पानी में फेंक दे तो उसे तैरकर किनारेपर पहुँचने की अनुज्ञा है। पानी से निकलकर वह तबतक सड़ा रहे जबतक उसका शरीर सूख जाये । उसे शरीरको जल्दी खानेका कोई प्रयत्न नहीं करना चाहिए। करना पड़े तो उसे सावधानी से किसीको भी छुए बिना पार करना चाहिए । जाये तो उसे पैर साफ़ करनेके लिए घास पर नहीं चलना चाहिए ।
यदि साधुको छिछला जल पार यदि उसके पैरोंमें कीचड़ लग
साधुको गंगा, यमुना, सरयू इरावती और मही इन पाँच महानदियोंको एक मासमें दो या तीन बार पार नहीं करना चाहिए। किन्तु यदि राजभय हो, या दुर्भिक्ष पड़ा हो, या किसीने उसे नदी में गिरा दिया हो, या बाढ़ आयी हो, या अनार्योंका भय हो तो वह इन नदियोंको पार कर सकता है । यह सब आचारांग के दूसरे भाग में है। दि. परम्परामें इतना विस्तारसे कथन नहीं है ।
एक स्थानपर ठहरनेका समय
वर्षाऋतुके अतिरिक्त साबुको गाँवमें एक परम्पराओं को यह नियम मान्य है । श्वे. साहित्य के किया जा सकता है
१. किसी ऐसे आचार्यसे जिन्होंने आमरण आहारका २. किसी खतरनाक स्थान में किसीको पथभ्रष्ट होनेसे रोकने के लिए ।
३. धर्मप्रचारके लिए ।
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दिन और नगरमें पांच दिन ठहरना चाहिए। दोनों अनुसार पाँच कारणोंसे वर्षाऋतु में भी स्थान परिवर्तन
त्याग किया हो, कोई आवश्यक अध्ययन करनेके लिए ।
४. यदि आचार्य या उपाध्यायका मरण हो जाये ।
५. यदि आचार्य या उपाध्याय ऐसे प्रदेशमें ठहरे हों जहाँ वर्षा नहीं होती तो उनके पास जाने के लिए ।
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कोई साधु एक ही स्थानपर दो वर्षावास नहीं कर सकता । वर्षाकाल बीत जानेपर भी यदि मार्ग कीचड़से या जन्तुओं से भरा हो तो साधु पांच से दस दिन तक उसी स्थानपर अधिक भी ठहर सकते हैं ।
साधु-आवास
जिस घर में गृहस्थोंका आवास हो या उनके और साधुके जाने-आनेका मार्ग एक हो, साबुको नहीं रहना चाहिए। जहां स्त्रियोंका, पशुओं आदिका आना-जाना हो ऐसे स्थान भी साधु-निवास के लिए वर्जित हैं। प्राचीन कालमें तो साधु नगर के बाहर वन, गुफा आदि में रहा करते थे ।
उत्तराध्ययनमें भी साधुको शून्य घर, श्मशान तथा वृक्षमूलमें निवास करनेके लिए कहा है । और कहा है कि एकान्तवास करनेसे समाधि ठीक होती है, कलह, कषाय, आदि नहीं होते तथा आत्मनियन्त्रण होता है। उपाश्रय और विहारका निर्देश होनेपर भी श्वेताम्बर साहित्यमें भी साबुको समाजसे दूर एकाकी जीवन वितानेको ही ध्वनि गूंजती है (हि. जे. मो. १६० )
सामाजिक सम्पर्क
प्रवचनसार ( ३।४५ ) में कहा है कि आगम में दो प्रकारके मुनि कहे हैं- एक शुभोपयोगी और एक शुद्धोपयोगी । इसकी टीकामें आचार्य अमृतचन्द्रने यह प्रश्न किया है कि मुनिपद धारण करके भी जो कषाय
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